Friday, May 8, 2009

राई एवं सरसों

मध्‍य प्रदेश भारत का तिलहन उत्‍पादन करने वाला एक महत्‍वपूर्ण प्रदेश है। राज्‍य में राई एवं सरसों की खेती लगभग 6.82 लाख हेक्‍टेयर में की जाती है। प्रदेश में चम्‍बल संभाग के मुरैना जिले में इसकी सर्वाधिक उत्‍पादकता (1359 किलो/हे.) है, जबकि राज्‍य की उत्‍पादकता मात्र 1083 किलो/हे. है। राई-सरसों, उत्‍तरी मध्‍यप्रदेश की प्रमुख रबी फसल है जो लगभग 70 प्रतिशत क्षेत्र में बोई जाती है। वर्तमान में मालवा क्षेत्र में भी इसका रकबा बढ़ा है। राई एवं सरसों की खेती सिंचित एवं बरानी क्षेत्रों में आसानी से की जाती है तथा इसके तेल का प्रयोग खाद्य तेल के रूप में तथा खली पशुओं के मुख्‍य आहार के रूप में किया जाता है। प्रदेश में इसकी खेती का रकबा एवं उत्‍पादन लगातार बढ़ रहा है तथा भविष्‍य में इसकी काफी संभावनाएं हैं।
राई, सरसों प्रजातियों में मुख्‍य रूप से सरसों की खेती कुल क्षेत्र के 90 प्रतिशत क्षेत्र में की जाती है, बाकी बचे 10 प्रतिशत क्षेत्र में तोरिया आदि की खेती सीमान्‍त एवं लघु सीमान्‍त क्षेत्रों में की जाती है।
उन्‍नत जातियॉ:
(1) तोरिया:
(अ) जवाहर तोरिया– 1 (जे.एम.टी-689): राई–सरसों, मुरैना द्वारा 1996 में विकसित इस जाति के पौधों की ऊंचाई 125–160 से.मी. है तथा पकने की अवधि 85-90 दिन है। इसकी उपज देने की क्षमता 15 से 18 क्विं. प्रति हेक्‍टेयर है। बीज का रंग कत्‍थई लाल सा होता है और इसमें तेल की मात्रा 42 प्रतिशत से अधिक होती है। यह किस्‍म श्‍वेत किटट रोग की प्रतिरोधी है।
(ब) भवानी: इसके पौधों की ऊचाई 70-75 से.मी. तक होती है। यह किस्‍म 80-85 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 12 से 13.5 क्विं प्रति हेक्‍टेयर तक होती है। बीज का रंग भूरा तथा तेल की मात्रा 44 प्रतिशत तक पाई जाती है। यह शीघ्र पकने वाली एवं द्विफसलीय पद्यति के लिये एक उचित किस्‍म है।
(स) टी–9: इसके पौधों की ऊंचाई 102–108 से.मी. होती है तथा यह 95–100 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 12- 15 क्विं प्रति हेक्‍टेयर होती है। इसके बीज का रंग भूरा जिसमें तेल की मात्रा 44 प्रतिशत तक पाई जाती है।
(2) गोभी सरसों:
(अ) टेरी उत्‍तम जवाहर (टेरी ‘’00’’ आर.– 9903): यह गोभी सरसों की किस्‍म टेरी, नई दिल्‍ली द्वारा 2004 में विकसित की गई है। इसका मुल्‍यांकन टेरी, नई दिल्‍ली एवं अखिल भारतीय समन्वित राई–सरसों ज.ने. कृषि विश्‍वविद्यालय परियोजना द्वारा किया गया है। किस्‍म को म.प्र. के लिये अनुमोदित किया गया है। इसमें केनोला प्रकार का (‘’00’’ टाइप) तेल पाया जाता है। इसके पौधों की ऊंचाई 125-130 से.मी. होती है। इसके पकने की अवधि 130-135 दिन होती है। इसमें फलियों के चटकने के प्रति रोधिता पाई जाती है एवं पौधे के गिरने के प्रति सहिष्‍णु है। इसके बीज का रंग भूरा होता है तथा इसकी उपज क्षमता 15-17 क्विं. प्रति हेक्‍टेयर होती है। इसमें तेल की मात्रा 42 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसके 1000 दानों का वजन 3.2 से 3.5 ग्राम तक होता है। इसके तेल में युरासिक अम्‍ल की मात्रा 2 प्रतिशत से कम एवं ओलिक अम्‍ल की मात्रा 60 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसको तेल रहित प्रति ग्राम खली में नोलेट की मात्रा 30 माइक्रोमोल्‍स से भी कम पायी जाती है, जो पशु आहार के लिये उपयुक्‍त पाई गई है।
(3) सरसों:
(1) जवाहर सरसों–1 (जे.एम.-1) जे.एम. डब्‍ल्‍यू.आर.93-39: यह सरसों की किस्‍म 1999 में राई-सरसों परियोजना , मुरैना द्वारा विकसित की गई है तथा यह देश की पहली श्‍वेत किटट रोग रोधी किस्‍म है। इसके पौधों की ऊंचाई 170-185 से.मी होती है तथा यह किस्‍म 125-130 दिनों में पक जाती है। यह किस्‍म फलियों के चटकने तथा पौधों के गिरने के प्रति सहिष्‍णु है। इसकी उपज क्षमता 15 से 20 क्विं. प्रति हेक्‍टेयर है। इसके बीज का रंग काला भूरा तथा आकार गोल होता है। इसमें तेल की मात्रा 40 प्रतिशत से अधिक होती है। इसके 1000 दानों का वजन 4-5 ग्राम तक होता है।
(2) जवाहर सरसों–2 (जे.एम-2) जे.एम.डब्‍ल्‍यू.आर.-941-1-2: वर्ष 2004 में राई सरसों परियोजना मुरैना द्वारा विकसित यह किस्‍म भी श्‍वेत किटट रोग की प्रतिरोधी किस्‍म है एवं अल्‍टरनेरिया भुलसन रोग के प्रति सहिष्‍णु है। इसके पौधों की ऊंचाई 165-170 सें.मी तक पकने की अवधि 135-138 दिन है। यह किस्‍म भी फलियों के चटकने एवं पौधों के गिरने के प्रति सहिष्‍णु है। इसकी उपज क्षमता 15 से 30 क्वि. प्रति हेक्‍टेयर तक पाई गई है। इसके काले भूरे रंग गोल आकार के बीज में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसके 1000 दानों का वजन 4.5 ग्राम से 5.2 ग्राम तक होता है।
(3) जवाहर सरसों–3 (जे.एम.-3) जे.एम.एम.-915: यह किस्‍म भी राई-सरसों परियोजना मुरैना द्वारा 2004 में विकसित एवं अनुमोदित की गई है। इस किस्‍म आल्‍टरनेरिया भुलसन रोग के प्रति सहिष्‍णु है तथा इस किस्‍म में अन्‍य किस्‍मों की अपेक्षाकृत माहू का प्रकोप भी कम पाया जाता है। इसके पौधों की ऊचाई 180-185 से.मी , फलियों की संख्‍या 180-200 प्रति पौधा एवं इसके पकने की अवधि 130 से 132 दिन है। इसकी उपज क्षमता 15 से 25 क्विं प्रति हेक्‍टेयर है। काले भूरे एवं गोलाकार बीजों में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसके 1000 दानों का वजन 4 से 5 ग्राम तक होता है।
(4) रोहिणी (के.आर.वी-24): इस जाति की फलियॉ ठहनी से चिपकी हुई होती है। इसके पौधों की ऊंचाई 150-155 से.मी होती है। यह किस्‍म 130–135 दिनों में पककर 20 से 22 क्विं प्रति हेक्‍टेयर उपज देती है। इसके दाने में 42 प्रतिशत से अधिक तेल पाया जाता है।
(5) वरूणा (टी-59): यह सरसों की बहुत पुरानी प्रचलित एक स्थिर किस्‍म है। इसके पौधों की ऊचाई 145-155 से.मी. तथा इसके पकने की अवधि 135-140 दिन एवं बीजों में तेल की मात्रा 42 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसकी औसत उपज क्षमता 20-22 क्विं प्रति हेक्‍टेयर है। इसके 1000 दानों का वजन 5 से 5.5 ग्राम तक होता है।
(6) क्रांति: सरसों की इस जाति में आरा मक्‍खी का प्रकोप कम होता है। इसके पौधों की ऊंचाई 155-200 से.मी. तक, पकने की अवधि 125-135 दिन होती है। इसकी औसत पैदावार 15-20 क्विं प्रति हेक्‍टेयर होती है। इसके 1000 दानों का वजन 4.5 ग्राम होता है, जिसमें तेल की मात्रा 40 प्रतिशत से अधिक होती है।
(7) पूसा बोल्‍ड: आर.ए.आर.आई, नई दिल्‍ली द्वारा 1984 में विकसित की गई यह किस्‍म बड़े दाने एवं अच्‍छी पैदावार देने वाली किस्‍म है। इसके पौधों की ऊचाई 170-180 से.मी तथा पकने की अवधि 125-130 दिन है। इसकी औसत उपज क्षमता 15 से 20 क्विं प्रति हेक्‍टेयर है। 1000 दानों का वजन 4.80 ग्राम होता है, जिसमें तेल की मात्रा 41 प्रतिशत से अधिक पाई गई है।
भूमि का चुनाव: राई-सरसों के लिए उत्‍तम जल निकास वाली समतल या बुलई दुमट भूमि सबसे अधिक उपयुक्‍त है।
भूमि की तैयारी: अधिकतम उपज प्राप्‍त करने हेतु खेत की मिटटी को जुताई द्वारा अत्‍याधिक भुरभुरी बनाकर समतल कर लेना चाहिये। भूमि की तैयारी के समय नमी संरक्षण का विशेष ध्‍यान रखना चाहिये। इसके लिये खेत की जुताई करने के तुरंत बाद साथ ही साथ पाटा भी चलाना चाहिए।
बीज की मात्रा एवं उपचार: तोरिया एवं सरसों के लिये 5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्‍टेयर पर्याप्‍त है। बोने से पूर्ण बीज को 6 ग्राम एप्रान एस.डी.-35 या 3 ग्राम थाइरम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।
जैविक खाद:
1. बारानी क्षेत्र में देशी खाद (40-50 क्विं प्रति हेक्‍टेयर) बुआई के करीब एक महीने पूर्व खेत में डालें और वर्षा के मौसम में जुताई के साथ खेत में मिला दें।
2. सिंचित क्षेत्रों के लिये अच्‍छा सड़ा हुआ देशी खाद (100 क्विं प्रति हेक्‍टेयर) बुआई के करीब एक महीने पूर्व खेत में डालकर जुताई से अच्‍छी तरह मिला दें।
जिन क्षेत्रों में जमीन में गन्‍धक की कमी हो उनमें 20-25 किग्रा प्रति हेक्‍टेयर गन्‍धक तत्‍व देना आवश्‍यक है, जिसकी पूर्ती अमोनियम सल्‍फेट, सुपर फास्‍फेट अथवा अमोनिया फास्‍फेट सल्‍फेट आदि उर्वरकों से की जा सकती है।
उपरोक्‍त उर्वरक उपलब्‍ध न होने पर जिपस्‍म या पायराइड का उपयोग भी किया जा सकता है। जस्‍ते की कमी वाले क्षेत्रों में 2 या 3 फसलों के बाद 25 किलो ग्राम जिंक सल्‍फेट प्रति हेक्‍टेयर आधार खाद के साथ मिलाकर उपयोग करें।
बोने का समय:
(अ) तोरिया: सितंबर माह का प्रथम पक्ष (जब औसत तापक्रम 28-30 डिग्री से. ग्रे. हो ) तोरिया के बाद गेहूं की फसल लेने हेतु इसकी बोनी आवश्‍यक रूप से सितंबर माह के दूसरे सप्‍ताह तक पूरी कर लेनी चाहिये। गेहूं के अलावा प्‍याज की फसल भी आसानी से ली जा सकती है।
(ब) सरसों: अक्‍टूबर माह का प्रथम पक्ष (जब औसत तापक्रम 26-28 डिग्री से.गेड हो) इसकी खेती आवश्‍यक रूप से अक्‍टूबर माह के दूसरे सप्‍ताह तक पूरी कर लेना चाहिये ताकि फसल कीट रोग, व्‍याधियों एवं पाला आदि प्रकोप से बची रहे।
बोने की विधि एवं पौध अन्‍तराल: अधिक उत्‍पादन के लिये ट्रेक्‍टर चलित बुआई की मशीन एवं देशी हल के साथ नारी द्वारा फसल की कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. रखकर बीज को 2.5 से 3 से.मी की गहराई पर ही बोएं। बीज को अधिक गहरा बोने पर अंकुरण कम हो सकता है। पौधों की दूरी 10 से.मी रखना चाहिये।
खरपतवार नियंत्रण: बुवाई के 20-25 दिन बाद हैण्‍ड हो अथवा निंदाई-गुड़ाई करना आवश्‍यक होता है। साथ ही साथ घने पौधों को निकालकर अलग कर देना चाहिये।
प्‍याजी खरपतवार के लिये रासायनिक खरपतवारनाशी बासलिन 1 कि.ग्राम. सक्रीय तत्‍व प्रति हेक्‍टेयर बुआई से पूर्व छिड़क कर भूमि में मिलावें अथवा बोनी के तुरंत बाद एवं अंकुरण से पूर्व आइसोप्रोटूरोन अथवा पेन्‍डीमिथलीन खरपतवारनाशी का 1 क्रिग्रा. सक्रीय तत्‍व का छिड़काव करें। इन खरपतवार नाशियों से दोनों ही प्रकार (एक दली व दो दली) के खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते हैं। खरपतवार नाशियों का छिड़काव फलेट फेन नोजल से 600 लीटर पानी का प्रति हेक्‍टेयर उपयोग करें। छिड़काव के समय खेत में उचित नमी होनी आवश्‍यक है।
जल प्रबंधन: पलेवा के बाद बोई गई फसल में बुआई के 40-45 दिन बाद तथा बिना पलेवा बोई गई फसलों में पहली सिंचाई 35-40 दिन बाद करने से फसल भरपूर पैदावार मिलती है। आवश्‍यक होने पर 75 -80 दिन बाद दूसरी सिंचाई करें।
फसल संकट:
(अ) कीट:
(1) राई- सरसों का चेंपा या माहू (एफिड): यह कीट बहुत छोटा हरा-पीला या भूरा काला रंग का होता है। यह पौधा के तने पुष्‍पदण्‍ड , पुष्‍पक्रम , फली आदि से रस चूसता है। यह कीट बहुत तेजी से बढ़ता है और पूरी फसल को बर्वाद कर सकता है। इस कीड़े की बढ़वार के लिये बादलों वाला मौसम बहुत अनुकूल होता है। इसके प्रकोप से फलियों व तेल की मात्रा कम हो जाती है। अत्‍यधिक प्रकोप होने पर पत्तियों एवं फलियों पर एक विशेष प्रकार का चिपचिपा मीठा पदार्थ छोड़ा जाता है जिस पर काला फफूंद नामक रोग लग जाता है।
नियंत्रण:
1. समय पर बुवाई
2. प्रकोप की प्रारंभिक अवस्‍था में कीट ग्रस्‍त टहनियों को तोड़कर नष्‍ट कर दें।
3. फसल पर माहू का प्रकोप होने पर आर्थिक दृष्टि से दवाओं का उपयोग तभी करना चाहिये जब खेत में 30 प्रतिशत पौधों पर माहू हो अथवा प्रति पौधे पर औसतन 8-13 माहू पौधे की ऊपरी 10 से.मी. टहनी पर पाये जायें। माहू के सफल नियंत्रण के लिये डेमेक्रान (फास्‍फोमिडान) 300 मि.ली दवा को 600 लीटर पानी में घोलकर प्रथम छिड़काव अधिक क्षतिकारक अवस्‍था पर एवं दूसरा 15 दिन बाद करने पर अत्‍यधिक लाभ होता है।
(2) आरा मक्‍खी: इस मक्‍खी के लार्वा हरे-पीले रंग से गहरे रंग, 1-1.5 से.मी लम्‍बे होते हैं तथा अक्‍टूबर से नवम्‍बर तक राई- सरसों की पत्‍ती खाकर बहुत नुकसान करते हैं।
नियंत्रण: इन कीड़ों की रोकथाम मेलाथियान 50 ई.सी या एण्‍डोसल्‍फान 35 ई.सी. की 500 मि.ली. मात्रा 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्‍टेयर छिडकने से की जा सकती है।
(3) चितकबरा कीड़ा (पेण्‍टेड बग): यह कीड़ा अक्‍टूबर से नवंबर तथा मार्च माह में सक्रिय होता है। पूर्ण विकसित कीड़ा अण्‍डाकार जिसके ऊपर सफेद , पीले व नारंगी रंग के धब्‍बे होते हैं। यह कीड़ा पौधे के तने तथा पत्तियों से रस चूसता है जिससे पौधों की पत्तियों पर सफेद धब्‍बे स्‍पष्‍ट दिखाई देते हैं। गंभीर प्रकोप में सम्‍पूर्ण पौधे नष्‍ट हो जाते हैं।
नियंत्रण:
1. सरसों के पुराने डण्‍ठल व अन्‍य अवशेषों को जलाकर नष्‍ट करें।
2. तोरिया फसल के बोने के 20-25 दिन बाद सिंचाई करें।
3. कीट नियंत्रण के लिये पैराथियोन चूर्ण 2 प्रतिशत प्रति हेक्‍टेयर 10-15 किलो ग्राम का भूरकाव करें।
4. मेटासिस्‍टाक्‍स 25 ई.सी दवा का 600 मि.ली. प्रति हेक्‍टेयर की दर से छिड़काव प्रभावशाली पाया गया है।
(ब) रोग:
(1) अल्‍टरनेरिया ब्‍लाइट (काला धब्‍बा): यह रोग भी दो अवस्‍थाओं में आता है। पहले पत्तियों की ऊपरी सतह पर गोल धारीदार कत्‍थई रंग के धब्‍बे प्रगट होते हैं। बाद में काले धब्‍बे फलियों व डालियों पर बनते हैं। रोगग्रस्‍त फलियों में दाने पोचे रह जाते हैं और उनमें तेल का प्रतिशत भी घट जाता है। दानों का वजन कम हो जाता है।
नियंत्रण: फसल बोने के 50 दिन बाद रिडोमिल एम. जेड-72 (0.25 प्रतिशत) का छिडकाव करें तथा 15 दिन बाद रोवेरोल (0.2 प्रतिशत ) का दूसरा छिड़काव करें।
(2) सफेद रतुआ या श्‍वेत किटट: यह रोग दो अवस्‍थाओं में आता है। पहले पत्तियों की निचली सतह पर सफेद दूधिया धब्‍बे बनते हैं और फूल आने के बाद स्‍वस्‍थ बालियों के स्‍थान पर फूली हुई विकृतियॉं दिखाई देती हैं जिन्‍हें ‘’ स्‍टेग हैड’’ यानि अति वृद्धि में तना, पुष्‍पक्रम व पुष्‍पदण्‍ड आदि फूले हुये दिखाई देते हैं।
नियंत्रण:
1. बीजों का उपचार करके बोयें।
2. पत्तियों पर रोग के लक्षण दिखते ही रिडोमिल एम जेड- 72 के 0.25 प्रतिशत घोल (अर्थात 25 ग्राम दवा को 10 लीटर पानी में घोलकर ) बोनी के 50 एवं 75 दिन बाद छिड़काव करें। रिडोमिल दवा न मिलने पर थायथेन एम-45 (0.25 प्रतिशत ) का छिड़काव भी किया जा सकता है।
(3) चूर्णिया आसिता या छछुआ: पत्तियों, फलियों व तने पर मटमैला सफेद धब्‍बों के रूप में दिखाई देते हैं। तापमान बढ़ने पर यह बिमारी अधिक फैलती है।
नियंत्रण:
1. फसल की समय पर बोनी करें।
2. फसल पर घुलनशील गंधक (0.3 प्रतिशत) या कारथेन (0.1 प्रतिशत) दवा का 15 दिन के अन्‍तर से छिड़काव करें।
(4) तना सड़: यह रो स्‍कलेरोटोनिया नामक फफूंद से होता है तथा नमी वाले खेतों में अधिक होता है। रोगग्रस्‍त पौधों के तने दूर से सफेद दिखाई देते हैं। ग्रसित पौधे अंदर से पीले हो जाते हैं और उनमें अन्‍दर सफेद फफूंद के बीच काले रंग के स्‍कलोरोशिया दिखाई देते हैं। किसान इस रोग को सरसों के पोलियों अथवा पोला रोग के नाम से जानते हैं।
नियंत्रण:
1. बीज को केप्‍टान अथवा बेविस्‍टीन से 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिये।
2. बेविस्‍टीन दवा (0.05 प्रतिशत) का पुष्‍प अवस्‍था पर छिड़काव बहुत असरदार पाया गया है।
3. फसल चक्र अपनाऍ
कटाई एवं गहाई: पौध कार्यकी परिपक्‍वता (फिजियोलोजिकल मैच्‍योरिटी) पर जब 75 प्रतिशत फलियॉ पीली पड़ जाये तब फसल को काटना चाहिये, ताकि फलियॉं चटकने से बच सकें। कटी हुई फसल को अच्‍छी तरह से सुखाकर जब बीज में नमी का प्रतिशत आठ के आस पास हो, वैज्ञानिक तरीके से भण्‍डारण करें।

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