Wednesday, May 13, 2009

धान

धान

धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्‍तीसगढ़ अंचल का मध्‍य प्रदेश से एक राज्‍य के रूप में अलग हो जाने के बावजूद भी इस प्रदेश में लगभग 17 लाख हेक्‍टर भूमि में धान की खेती प्रमुखता के साथ की जाती है़। प्रदेश के बालाघाट, रीवा, सतना, सीधी, शहडोल, उमरिया, कटनी, जबलपुर, सिवनी, डिन्‍डौरी, मण्‍डला व पन्‍ना जिलों के अधिकांश क्षेत्रों में धान की खेती प्रमुखता से की जाती है जबकि दमोह, ग्‍वालियर, न‍रसिंहपुर, छतरपुर, टीकमगढ़, छिंदवाड़ा, बैतूल, होशंगाबाद व रायसेन जिलों के कुछ सीमित क्षेत्रों में धान का खेती की प्रचलन है।
धान की अधिकतर खेती वर्षा आधारित दशा में होती है जो धान के कुल क्षेत्रफल का लगभग 75 प्रतिशत है। इन क्षेत्रों में कहीं-कहीं सितम्‍बर-अक्‍टूबर माह में फसल सुरक्षा हेतु पानी की सुविधा है। सिंचित क्षेत्रों में धान की खेती बालाघाट और जबलपुर जिलों में ही सीमित है।
धान की खेती में खामियॉं:
यद्यपि धान के कुल रकबा के 70 प्रतिशत भाग में स्‍थानीय प्रजातियों के बजाय विकसित प्रजातियों की बोनी की जाती है किंतु किसान खेतों की दशा, जल की उपलब्‍धता के अनुसार उनका सही चयन नहीं करता है।
खेती के लिए विकसित उन्‍नत कृषि तकनीकी जैसे बुवाई, प्रबंधन, पोषण, जल-प्रबंधन, पौधा संरक्षण आदि पर अमल न होना।
धान में एकीकृत नींदा नियंत्रण पद्धति ही सर्वोत्‍तम होती है और नींदा-प्रबंधन सबसे कठिन समस्‍या है। समय पर सुनियोजित नींदा-नियंत्रण न करना इसकी खेती में बाधक है।
धान में कई प्रकार के कीटों एवं रोगों का प्रकोप शैशव काल से फसल पकने की अवस्‍था तक किसी न किसी रूप में होता रहता है। इनके प्रभावी नियंत्रण को न अपनाना एक समस्‍या बन जाती है।
धान की खेती की प्रचलित पद्धतियॉ:
(अ) सीधे बीज बोने की पद्धतियॉ: खेत में सीधे बीज बोकर निम्‍न तरह से धान की खेती की जाती है।
1. छिटकवां बुवाई
2. नाड़ी हल या दुफन या सीड ड्रिल से कतारों में बुवाई
3. बियासी पद्धति (छिटकवां विधि से सवागुना अधिक बीज बोकर लगभग एक महीने की फसल की पानी भरे खेत में हल्‍की जुताई)
(ब) रोपा विधि: रोपणी में पौध तैयार करके लगभग एक महीने के पौधों को मचौआ किये गये खेतों में रोपण करना। रोपण कार्य कतारों में निर्धारित दूरी पर नहीं किया जाता है। अनियंत्रित ढंग से बहुत अधिक पौधों को काफी सघनता से रोपण करने से रोपाई का खर्च एवं समय आदि बढ़ जाता है।
धान की खेती वाले खेतों को दशाऍ:
(अ) वर्षा आधीन खेती के क्षेत्रों में:
1. बिना बंधान वाले समतल या हल्‍के ढलान वाले खेत: इस तरह के खेत अधिकतर डिन्‍डौरी, मण्‍डला, शहडोल व सीधी जिलों के पहाड़ी क्षेत्रों में हैं और इन खेतों में बहुत जल्‍दी पकने वाली (लगभग 80-90 दिनों) स्‍थानीय प्रजातियों की खेती की जाती है।
2. हल्‍की बंधान वाले खेत: इन खेतों में 30 से 60 सेमी. ऊंची मेड़ रहती हैं। ऐसी खेती हल्‍की से भारी सभी प्रकार की जमीनों में होती है। खेतों के आकार छोटे-बड़े (0.1 एवं 1.0 हेक्‍टेयर, तक के) होते हैं। बालाघाट और सिवनी जिलों के खेतों के आकार अधिक तर छोटे रहते हैं।
3. ऊंची बंधान वाले खेत: इन खेतों में 60 सेमी. से अधिक ऊंची और मोटी मेड़ें रहती हैं तथा खेतों में ज्‍यादा समय तक पानी रोका जा सकता है। इन खेतों का भी आकार छोटा से बड़ा तक रहता है और सभी प्रकार के जमीनों में ऐसे खेत होते हैं।
4. अधिक जल भराव वाले निचले खेत: इन खेतों में वर्षा का पानी जल्‍दी इकट्ठा होकर जमा हो जाता है जिसे आसानी से नहीं निकाला जा सकता है। अधिकतर पहाड़ी या उतार-चढ़ाव वाले क्षेत्रों में ऐसे खेत होते हैं।
5. बॉंध वाले क्षेत्र: रीवा, सीधी, शहडोल, कटनी जिलों में ढलान के क्षेत्रों में बहुत ऊंची व मजबूत मेड़ें बनाकर बड़े आकारों (2.0 से 5.0 हेक्‍टर) के खेत बनाए जाते हैं जिन्‍हें स्‍थानीय बोलचाल में बांधों के नाम से संबोधित किया जाता है। इनमें वर्षा का पानी काफी मात्रा में इकट्ठा होता है। इनके निचले भागों को छोड़कर, ऊंचे भागों में जहॉ जलस्‍तर कम रहता है, धान की खेती की जाती है।
(ब) सिंचित खेत: नहरों, तालाबों, नदियां, नालों या नलकूपों में से किसी एक श्रोत से पूर्णकालिक या आंशिक रूप में (सुरक्षात्‍मक) सिंचाई की सुविधा वाले खेत।
प्रजातियों के चयन का आधार:
1. पतले चावल वाली: खाने के लिए अधिक उपुयक्‍त होने के कारण इसका बाजार मूल्‍य अधिक होता है।
2. मोटे चावल वाली: पोहा उद्योग के लिये उपयुक्‍त होने से पोहा मिल के क्षेत्रों में अच्‍छा मूल्‍य मिलता है।
3. सुगंधित चावल वाली: उचित व्‍यापार का अभाव होने से बहुत कम खेती की जाती है। इसे शौकिया रूप से थोड़े क्षेत्रों में कहीं-कहीं बोई जाती है।
4. संकर प्रजातियॉ: बीज महंगा है, बीजों की पर्याप्‍त उपलब्‍धता नहीं है तथा उपयुक्‍त उन्‍नत काश्‍तकारी की जानकारी किसानों को नहीं है, अत: इनका क्षेत्रफल कम है।
5. रंगीन पत्‍ती वाली: जंगली धान के नियंत्रण/उन्‍मूलन हेतु इनकी आवश्‍यकता महसूस की जाती है, किंतु हर अवधि में पैदा होने वाले वांछित चावल की किस्‍मों की प्रजातियां उपलब्‍ध नहीं हैं, अत: कम प्रचलन में है।
मध्‍यम अवधि में पकने वाली प्रजातियॉ:
खेत की तैयारी: धान के लिये खेतों की तैयारी बुवाई की पद्धति के अनुसार निम्‍नानुसार करना चाहिए:
(1) लेही पद्धति के अलावा सीधे बीज बोने के लिए: रबी फसलों की कटाई के बाद खासतौर पर गर्मी के महीनों में खेत की गहरी जुताई तथा वर्षा प्रारंभ होते ही खेत तैयार करके बोनी करें। यदि रबी खेत पड़ती हो और गर्मियों की जुताई संभव न हो तो वर्षा शुरू होने के बाद जुताई करके खेत तैयार करें। प्रथम वर्षा के बाद निकले खरपतवारों की जुताई करके धान की बुवाई करने से शुरू की अवस्‍था में खरपतवारों का प्रकोप कम होता है। सूखी जमीन की तैयारी करके वर्षा के पूर्व ही धान बोने से फसल के साथ-साथ नींदा भी बहुत होते हैं। भारी जमीनों में जहॉ वर्षा के बाद खेत की तैयारी मुश्किल हो जाती है, वहॉ खेत से वर्षा के बाद उगे हुए नींदा को पैराक्‍वाट नींदा नाशक द्वारा नष्‍ट कर सीधे बीज की बोनी करने से समय व पैसा दोनों की बचत हो सकती है। किंतु यह कार्य पड़त जमीनों में संभव नहीं होगा। उगे हुए खरपतवार को नष्‍ट करने के लिये 1 लीटर पैराक्‍वाट नींदा नाशक 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें तथा छिड़काव के दूसरे या तीसरे दिन बाद सीधे बीज की बोनी करें। नींदा बड़े होने पर पैराक्‍वाट की मात्रा डेढ़ गुनी करें तथा इसके उपयोग के बाद खरपतवार सूख जाने पर (दवा डालने के 3-4 दिन बाद) पर बुवाई करें। यदि गोबर खाद का उपयोग कर रहे हो तो 5-10 टन प्रति हेक्‍टेयर इसे आखिरी जुताई या बखरनी के पूर्व जमीन में डालकर जुताई करें। बरखनी द्वारा इसे मिट्टी में अच्‍छी से मिलाएं।
(2) लेही पद्धति व रोपाई के लिये: इन पद्धतियों के लिये भी गर्मी के दिनों की गहरी जुताई लाभप्रद होती है। इन पद्धतियों में खेत की तैयारी के लिये, खेतों में वर्षा या सिंचाई का जल भरकर 2-3 बखरनी या पडलर चलाकर मचौआ करते हैं। इससे खेत की मिट्टी एवं पानी की गाढ़ी लेई बन जाती है। खेत के कूड़ा-करकट, डाले गये गोबर खाद/कम्‍पोस्‍ट/पौधों के अवशेष/हरी खाद तथा खरपतवारों के अवशेष आदि मचौआ तथा मिट्टी में मिल जाते हैं। इस प्रकार खेत को समतल करके लेही के लिये अंकुरित बीजों की बोनी तथा रोपाई के लिए पौधों की रोपनी करना चाहिये।
रोपणी में पौध तैयार करना
जितने रकबे में धान की रोपाई करना हो उसके 1/20 भाग में रोपणी बनाना चाहिये। इस रोपणी में निर्धारित क्षेत्र के लिये आवश्‍यक बीज इस प्रकार से क्रमश: बोनी करना चाहिए कि लगभग 3-4 सप्‍ताह के पौध रोपाई के लिये समय पर तैयार हो जायें। रोपणी के लिये 2-3 बार जुताई, बखरनी करके अच्‍छी तरह पहले खेत तैयार करना चाहिए। इसके बाद खेत में 1.5-2.0 मीटर चौड़ी पट्टि‍यॉ बना लेना चाहिए तथा इनकी लम्‍बाई खेत के अनुसार कम अधिक हो सकती है। प्रत्‍येक पट्टी के बीच 30 सेमी. की नाली रहनी चाहिए। इन नालियों की मिट्टी नाली बनाते समय पट्टि‍यॉ में डालने से पट्टि‍यॉ ऊंची हो जाती है। ये नालियॉ जरूरत के अनुसार सिंचाई व जल निकास के लिये सहायक होती हैं। रोपणी में बीजों की बुवाई 8 से 10 सेमी. के अंतर से कतारों में करने से रख-रखाव तथा रोपणी हेतु पौध उखाड़ने में आसानी होती है। रोपणी में क्षेत्रफल के अनुसार 150 किलोग्राम नत्रजन, 100 किलोग्राम स्‍फुर तथा 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्‍टेयर देना चाहिए। एक-तिहाई नत्रजन तथा पूरी स्‍फुर व पोटाश की मात्रा बुवाई के समय देना चाहिये तथा शेष नत्रजन उगे हुये पौधों में 12-14 दिन बाद छिड़ककर देना चाहिये।
लेही के लिये बीज अंकुरित करना: लेही पद्धति से बोनी करने के लिये खेत की तैयरी के तुरंत बाद अंकुरित बीज उपलब्‍ध होना चाहिये। अत: लेही बोनी के लिये प्रस्‍तावित समय के 3-4 दिन पहले से ही बीज अंकुरित करने का कार्य शुरू कर देना चाहिए। इस हेतु निर्धारित बीज की मात्रा को रा‍त्रि में पानी में 8-10 घंटे भिगोना चाहिये, फिर इन भीगे हुए बीजों का पानी निकालकर पानी निथार देना चाहिये। तदुपरांत इन बीजों को पक्‍की सूखी सतह पर बोरों से ठीक से ढंक देना चाहिये। ढकने के 24-30 घंटे के अंदर बीज अंकुरित हो जाता है। इसके बाद ढके गये बोरों को हटाकर बीज को छाया में फैला कर सुखाऐं। इन अंकुरित बीजों का इस्‍तेमाल 6-7 दिनों तक किया जा सकता है।
बीजोपचार: बीजों को खेत में या रोपणी में बुवाई करने के पूर्व उपचारित कर लेना चाहिए। सबसे पहले बीजों को नमक के घोल में डालें। इसके लि‍ये 10 लीटर पानी में 1.6 किलोग्राम खाने का नमक डालकर घोल बनाएं। इस तरह के घोल में बीजों को डुबाने से हल्‍के बीज पानी में तैरने लगते हैं, उन्‍हें छान कर अलग कर लें, फिर नीचे के बीजों को पानी से निकाल कर दो बार साफ पानी से अच्‍छी तरह से धोयें तथा छाया में फैलाकर सुखाएं। सुखाए गये बीजों में 2 ग्राम मोनोसाल या केप्‍टान या थायरम़ + 2.5 ग्राम थायरम अथवा मेन्‍कोजेब बेविस्‍टन प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करके बोनी करें। बैक्‍टेरियल बीमारियों से बचाव के लिये बीजों को 0.05 प्रतिशत स्‍ट्रेप्‍टोसाइक्लिन के घोल में डुबाकर उपचारित करना लाभप्रद होता है।
बुवाई का समय: वर्षा प्रारंभ होते ही धान की बुवाई का कार्य प्रारंभ कर देना चाहिए। जून मध्‍य से जुलाई प्रथम सप्‍ताह तक बोनी का समय सबसे उपयुक्‍त होता है। बुवाई में विलम्‍ब होने से उपज पर विपरीत प्रभाव पड्ता है। रोपाई के बीजों की बुवाई/रोपणी जून के प्रथम सप्‍ताह से ही सिंचाई के उपलब्‍ध स्‍थानों पर कर देनी चाहिये क्‍योंकि जून के तीसरे सप्‍ताह से जुलाई मध्‍य तक की रोपाई से अच्‍छी पैदावार मिलती है। लेही विधि से धान के अंकुरण हेतु 6-7 दिनों का समय बच जाता है। अत: बीजू धान में देरी होने पर लेही विधि से बोनी करने से अधिक लाभ होगा।
बुवाई की विधियॉं:
छिटकवॉं विधि: इस विधि में अच्‍छी तरह से तैयार खेत में निर्धारित बीज की मात्रा छिटककर हल्‍की बखरनी द्वारा बीज को मिट्टी में ढक देते हैं।
2. कतारों की बोनी: अच्‍छी तरह से तैयार खेत में निर्धारित बीज की मात्रा नारी हल या दुफन या सीडड्रिल द्वारा 20 सेमी. की दूरी की कतारों में बोनी करना चाहिये।
3. बियासी विधि: इस विधि में छिटकवॉं या कतारों की बोनी के अनुसार निर्धारित बीज की सवा गुना मात्रा बोते हैं। इसके बाद लगभग एक महीने की खड़ी फसल में हल्‍का पानी भरकर हल्‍की जुताई कर देते हैं। जहां पौधे घने उगे हों जुताई के बाद उखड़े हुये घने पौधों को विरली स्‍थान पर लगा देना चाहिये। बियासी करने से खेत में खरपतवार कम हो जाते हैं तथा जल धारण क्षमता अच्‍छी हो जाती है। इससे फसल की बढ़वार अच्‍छी होती है।
4. लेही विधि: इस विधि में खेत में पानी भरकर मचौआ करना चाहिए, फिर समतल खेत में निर्धारित बीज की मात्रा छिटक देनी चाहिए। बोनी के दूसरे दिन बाद खेत में 8-10 सेमी. अधिक पानी नहीं रहना चाहिए तथा खेत की मेड़ बंधी रहना चाहिए। यदि तेज वर्षा होने का लक्षण हो तब बुवाई नहीं करना चाहिए।
5. रोपा विधि: सामान्‍य तौर पर 3-4 सप्‍ताह के पौध रोपाई के लिये उपयुक्‍त होते हैं तथा एक जगह पर 2-3 पौध लगाना पर्याप्‍त होता है। रोपाई में विलम्‍ब होने पर एक जगह पर 4-5 पौधे लगाना उचित होगा। जल्‍दी व मध्‍यम पकने वाली प्रजातियों के अधिक आयु के पौधे नहीं लगाना चाहिये। संकर प्रजातियों के 3 सप्‍ताह की पौध, एक पौध प्रति हिल के हिसाब से समय पर लगाने पर 20 सेमी. X 15 सेमी. तथा रोपाई में विलम्‍ब होने पर 15 सेमी. X 15 सेमी. की दूरी पर लगाना चाहिये।
खाद एवं उर्वरकों का उपयोग:
गोबर खाद या कम्‍पोस्‍ट:- धान की फसल में 5 से 10 टन/हेक्‍टेयर तक अच्‍छी सड़ी गोबर की खाद या कम्‍पोस्‍ट का उपयोग करने से महंगे उर्वरकों के उपयोग में बचत की जा सकती है। हर वर्ष इसकी पर्याप्‍त उपलब्‍धता न होने पर कम से कम एक वर्ष के अंतर से इसका उपयोग करना बहुत लाभप्रद होता है। इनके उपयोग से जमीन की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में सुधार होता है, जिससे मिट्टी की जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है। इसके उपयोग से प्रमुख पोषक तत्‍वों के साथ-साथ द्वितीयक एवं सूक्ष्‍म पोषक तत्‍वों की पूर्ति धीरे-धीरे होती रहती है।
हरी खाद का उपयोग: रोपाई वाली धान में हरी खाद के उपयोग में सरलता होती है, क्‍योंकि मचौआ करते समय इसे मिट्टी में आसानी से बिना अति‍रिक्‍त व्‍यय के मिलाया जा सकता है। हरी खाद के लिये सनई का लगभग 25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्‍टेयर के हिसाब से रोपाई के एक महीने पहले बोना चाहिए। लगभग एक महीने की खड़ी सनई की फसल को खेत में मचौआ करते समय मिला देना चाहिए। यह 3-4 दिनों में सड़ जाती है। यदि खेत खाली न हो तो पानी के साधन से अगल-बगल के खेतों में समय से लगायें तथा लगभग एक महीने की हरी फसल काट कर धान वाले खेत में फैला दें और मचौआ करके मिट्टी में मिलाएं। ऐसा करने से लगभग 50-60 किलोग्राम/हेक्‍टेयर उर्वरकों की बचत होगी। इसका उपयोग गोबर खाद या कम्‍पोस्‍ट से भी अधिक लाभकारी होता है। बीजू धान में हर चौथी या पांचवी धान की कतार के बाद सनई बोएं तथा एक महीने की सनई का पौधा हो जाने पर, इसे कतार में ही ताईचुंग गुरमा या हेण्‍ड हो चलाकर मिट्टी में मिला दें। ऐसा करने से लगभग एक चौथाई उर्वरकों की बचत होती है तथा निंदाई में भी सुविधा होगी।
जैव उर्वरकों का उपयोग: कतारों की बोनी वाली धान में 5000 ग्राम/हेक्‍टेयर प्रत्‍येक एजोटोबेक्‍टर आर.पी.एस.बी. जीवाणु उर्वरक का उपयोग करने से लगभग 15 किलोग्राम/हेक्‍टेयर नत्रजन और स्‍फुर उर्वरक बचाएं जा सकते हैं। इन दोनों जीवाणु उर्वरकों को 50 किलोग्राम/हेक्‍टेयर सूखी सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई करते समय कूड़ों में डालने से इनका उचित लाभ मिलता है।
बीजू धान में उगने के 20 दिनों तथा रोपाई धान में रोपाई के 20 दिनों की अवस्‍था में, 15 किलोग्राम/हेक्‍टेयर हरी नीली काई का भुरकाव करने से लगभग 20 किलोग्राम/हेक्‍टेयर नत्रजन उर्वरक की बचत की जा सकती है। ध्‍यान रहे, काई का भुरकाव करते समय खेत में पर्याप्‍त नमी या हल्‍की पानी की सतह (5+2 सेमी.) रहनी चाहिये।
उर्वरकों का उपयोग: प्रदेश के हर क्षेत्रों में प्राय: नत्रजन, स्‍फुर व पोटाश उर्वरकों के उपयोग से धान की फसल में पर्याप्‍त वृद्धि होती है। धान की फसल में इन उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण बोई जाने वाली प्रजाति व भूमि के आधार पर तालिका में बताये अनुसार करना चाहिए।
प्रदेश के हर क्षेत्रों में प्राय: नत्रजन, स्‍फुर व पोटाश उर्वरकों के उपयोग से धान की फसल में पर्याप्‍त वृद्धि होती है। धान की फसल में इन उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण बोई जाने वाली प्रजाति व भूमि के आधार पर तालिका में बताये अनुसार करना चाहिए।
द्वितीयक एवं सूक्ष्‍म पोषी तत्‍वों का उपयोग: जहां पर लगातार उर्वरकों के उपयोग से धान व अन्‍य फसलों का अच्‍छा उत्‍पादन लिया जा रहा हो एवं सघन खेती (द्वि फसली/बहुफसली) पद्धति अपनाई जा रही हो, वहां भूमि में जस्‍ता की कमी हो रही है। इसी तरह लगातार गंधक रहित उर्वरकों जैसे डी.ए.पी. तथा यूरिया के बढ़ते उपयोग से गंधक की कमी खेतों में हो रही है। अत: 25 किलोग्राम जिंक सल्‍फेट/हेक्‍टेयर बुवाई के समय प्रति वर्ष या एक वर्ष के अंतराल से देना काफी फायदेमंद रहता है।
उपरोक्‍त मात्रा प्रयोगों के परिणामों पर आधारित है, किंतु भूमि परीक्षण द्वारा उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण वांछित उत्‍पादन के लिये किया जाना लाभप्रद होगा।
स्‍फुर, पोटाश और जिंक सल्‍फेट की पूरी मात्रा बीजू धान में बुवाई तथा रोपाई वाली धान में रोपाई के समय पर देना जरूरी है, किंतु धान की फसल में नत्रजन यदि बुवाई के समय न देकर बुवाई के 15-20 दिनों बाद निंदाई करके या रोपाई के 6-7 दिनों बाद दें तो नत्रजन के उपयोग की क्षमता बढ़ेगी। यदि बीजू धान में बुवाई के तुरंत बाद नींदानाशी का उपयोग कर रहे हैं तो बुवाई के समय निर्धारित मात्रा की एक तिहाई नत्रजन बीज बोते समय दे सकते हैं। प्रभावी उपयोग क्षमता के लिये नत्रजन की मात्रा का विभाजन करके फसल की विभिन्‍न अवस्‍थाओं में प्रजातियों के अनुसार निम्‍न तरह से करना चाहिये।
नत्रजन उर्वरकों की उपयोग क्षमता में सुधार:
1. नत्रजन युक्‍त उर्वरकों का उपयोग बीज बोते समय या रोपा लगाते समय करने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा। बीजू धान में बोनी के 15-20 दिनों की अवस्‍था पर निंदाई करके इनका उपयोग करें। रोपाई धान में रोपाई के 6-7 दिनों पर प्रथम बार नत्रजन उर्वरक दें।
2. नत्रजन का उपयोग कई बार में बताई गई तालिका अनुसार करें।
3. नत्रजन उर्वरक धान में पानी द्वारा रिसकर नीचे चले जाते हैं। अत: इन पर नीम की खली की पर्त चढ़ाकर उपयोग करने से इनकी उपयोग क्षमता बढ़ती है। 100 किलोग्राम में 20 किलोग्राम नीम की खली का बारीक चूर्ण मिलाना उचित होगा। खली का चूर्ण मिलाने के लिये यूरिया में 1 लीटर मिट्टी के तेल का छिड़काव करने से खली यूरिया पर चिपक जाती है। नीम की खली चिपकी हुई यूरिया का नुकसान नहीं होता है। इसी प्रकार नत्रजन उर्वरकों में कोलतार की पर्त चढ़ा कर केवल एक ही बार में पूरी मात्रा दी जा सकती है, जो पौधों को आवश्‍यकतानुसार पूरे जीवनकाल में मिलती रहती है। इसके लिये 100 किलोग्राम यूरिया में 5 किलोग्राम कोलतार, 1.5 लीटर मिट्टी के तेल के सहारे चिपकाना चाहिये।
4. यूरिया के बड़े आकार की गोलियॉं (यूरिया सुपर ग्रेन्‍यूल्‍स) कतारों में रोपाई की गई धान में, एक कतार के अंतराल पर तथा कतार में एक पौधे के अंतराल से बुवाई के 5-6 दिन बाद जमीन में 5-6 सेमी. गहराई में स्‍थापित करने से नत्रजन की उपयोग क्षमता, छिटककर दी गई नत्रजन से दुगनी की जा सकती है।
नत्रजन उर्वरकों के उपयोग में सावधानियॉं
1. सूखे खेतों में उर्वरक न डालें।
2. खरपतवार से ग्रस्‍त फसल में उर्वरक उनकी निंदाई करने के बाद ही डालें।
3. उर्वरक डालते समय खेत में 4-5 सेमी. तक पानी रह सकता है। नम खेत में ही उर्वरक डालें। अधिक पानी रहने पर पानी निकालने के बाद उर्वरक डालें। उर्वरक डालते समय तथा उसके बाद खेत की मेंड़ बंधी रहनी चाहिये।
4. वर्षा के बाद गीले पौधों पर नत्रजन उर्वरक न डालें। यह ध्‍यान रखें कि यदि जल्‍दी पानी बरसने की उम्‍मीद हो, तब भी खेत में उर्वरक न डालें।
उतेरा फसल पद्धति में उर्वरकों का उपयोग: प्रदेश के कई जिलों जैसे सिवनी, डिण्‍डोरी, मण्‍डला, बालाघाट व जबलपुर के असिंचित क्षेत्रों के कुछ इलाकों में धान की खड़ी फसल में कटाई के 15-20 दिन पूर्व उतेरा फसल के रूप में तिवड़ा, बटरी, अलसी, मसूर व उड़द की बुवाई की जाती है। जहां पर यह पद्धति अपनाई जाती है, वहां धान की फसल में निर्धारित उर्वरकों के अलावा 20 किलोग्राम स्‍फुर प्रति हेक्‍टेयर की अतिरिक्‍त मात्रा का उपयोग करना काफी लाभप्रद होता है।
नींदा नियंत्रण: धान की फसल में बीज उगने या पौधा लगाने से लेकर कटाई तक हर अवस्‍था में कई प्रकार के खरपतवार उगते हैं। सॉवा, टोरी वट्टा, कनकी, मोथा, बदौर, जलदूब, जलखुम्‍बी, मृंगराज, विल्‍जा व जंगली धान जैसे खरपतवार इतनी अधिक तादाद में उगते हैं कि कभी-कभी धान की फसल काटने लायक ही नहीं रह जाती है। हर महीने में उगने वाले नींदा अलग-अलग है, किंतु सॉवा, मोथा, जलदूव, जंगली धान व कनकी का प्रयोग तो पूरे फसल काल में खतरनाक रहता है। सॉवा, टोरी, बट्टा और जंगली धान की निंदाई के दौरान फसल के पौधों को पहचानना भी दुष्‍कर हो जाता है। धान की बुवाई अलग-अलग ढंग से अलग-अलग स्थितियों में की जाती है तथा जल्‍दी पकने वाली किस्‍मों से लेकर लंबी अवधि की प्रजातियॉं उगाई जाती है। अत: इनमें निंदा नियंत्रण के उपाय भी अलग-अलग ढंग से निम्‍नानुसार अपनाना चाहिये।
(अ) बीजू छिटकवॉ धान जिसमें बियासी नहीं की जाती हो:
1. बुवाई के तुरंत बाद नई जमीन में या सूखी जमीन की बोनी में पानी बरसने के तुरंत बाद ब्‍यूटाक्‍लोर 2.5 किलोग्राम/हेक्‍टेयर सक्रिय तत्‍व का छिड़काव 500 लीटर पानी में घोलकर करने से लगभग 20-25 दिनों तक निंदा नहीं उगते हैं।
2. खरपतवार उग आने के बाद जुताई करके, खेत तैयार करके बुवाई करने से फसल में लगभग 10-15 दिनों तक खरपतवार नहीं रहते हैं।
3. खड़ी फसल में दो बार 20-25 दिनों और 40-45 दिनों की अवस्‍था पर निंदाई करें।
4. चौड़ी पत्‍ती वाले खरपतवार की अधिकता होने पर 2, 4-डी नामक नींदानाशी 0.5 किग्रा./हेक्‍टेयर का छिड़काव लगभग 25 से 30 दिनों तक की फसल पर करें। यदि कोई और फसल धान के साथ हो तब यह छिड़काव न करें।
(ब) बीज छिटकवा धान, जहॉ बियासी की जाती हो: जहॉं बियासी अपनाई जाती हो, वहॉं बियासी करने के बाद 7 दिनों के अंदर निंदाई व चलाई किया जाना चाहिये। दूसरी निंदाई 25-30 दिनों पर करनी चाहिये। बियासी के लिये समय पर पानी उपलब्‍ध होने पर निंदाई करना चाहिये। बोनी के 40-45 दिनों बाद बियासी नहीं करना चाहिये।
(स) कतारों में बोई गई बीजू धान में: ‘अ’ में बताए गये तरीके से नींदा नियंत्रण करें। इसके अलावा कतारों के बीच ताइचुंग गुरमा लगभग 15 दिनों के अंतराल से 50 दिनों तक फसल में कतारों के बीच चलाने से निंदाई का व्‍यय बहुत कम हो जाता है। निंदाई से निकाले गये खरपतवारों की पलवार कतारों के बीच इस प्रकार बिछाएं कि उनकी जड़ें जमीन के संपर्क में न आने पायें। ऐसा करने से नये खरपतवार नहीं उग पाते, नमी का संरक्षण होता है और खेत में पोषक तत्‍वों की वृद्धि होती है।
(द) रोपाई धान में:
1. रोपाई के बाद 6-7 दिनों तक ब्‍यूटाक्‍लोर 2 से 2.50 किलोग्राम/हेक्‍टेयर का छिड़काव करने से लगभग 25-30 दिनों तक खरपतवार का प्रकोप कम होता है।
2. खड़ी फसल में रोपाई के 30 और 45 दिनों पर करने से खरपतवार पर नियंत्रण हो जाता है।
3. कतारों की रोपाई में कतारों के बीच ताइचुंग गुरमा चलाने से खरपतवार का प्रभावी नियंत्रण होता है।
4. चौड़ी पत्‍ती वाले खरपतवार उगने पर, 2,4-डी नींदा नाशी 0.5 किलोग्राम/हेक्‍टेयर का छिड़काव लगभग एक माह की फसल पर करने से इनका नियंत्रण हो जाता है।
(ई) जहॉं पर जंगली धान का प्रकोप हो: जंगली धान के प्रकोप वाले खेतों में, बैंगनी पत्‍ती वाली धान की प्रजातियॉं जैसे श्‍यामला, आर. 470 (नाग केशर व जलकेशर स्‍थानीय प्रजातियॉं) उगाने से निंदाई में सुविधा होती है।
जल प्रबंधन:
धान अधिक पानी चाहने वाली फसल है। किसी भी अवस्‍था में पानी की कमी होने पर उपज में गिरावट आती है, किंतु कंसे निकलते समय और दाना भरते समय पानी की कमी से उपज में बहुत गिरावट होती है। बालें निकलते समय और दाना भरते समय भी पानी की कमी से उपज में बहुत गिरावट होती है। लगातार खेत में पानी भरे रखने से यद्यपि खरपतवार कम उगते हैं फिर भी उपज पर बुरा असर पड़ता है। खेत से भरा हुआ पानी 3-4 दिनों के लिये निकालकर फिर दूसरी पानी भरते रहने का क्रम बनाना फसल की उपज के लिये सर्वोत्‍तम जल प्रबंधन है। प्रजातियों के अनुसार धान की फसल की विभिन्‍न अवस्‍थाओं पर खेत में पानी के सतह की ऊंचाई निम्‍नानुसार सुनिश्चित करना चाहिये।
पौध संरक्षण:
(अ) कीट: धान की सभी अवस्‍थाओं में किसी न किसी विनाशकारी कीटों या रोगों के प्रकोप की आशंका बनी रहती है, अत: हमेशा खेत की निगरानी करते रहना चाहिये तथा इनका प्रकोप दिखने पर कृषि परामर्श केन्‍द्रों से सम्‍पर्क करके उचति पौध संरक्षण उपाय अपनाना चाहिये। किसी भी कीट या रोग के प्रकोप को नजर अंदाज नहीं करना चाहिये।
हानिकारक कीटों का सर्वेक्षण:
1. खेत में हानिकारक कीटों के प्रकोप तथा जैव नियंत्रण के साधनों परजीवी एवं परभक्षी मित्र कीट की संख्‍या के सही आंकलन हेतु फसल की बुवाई एवं रोपाई से लेकर कंसे बनने तक प्रत्‍येक 7 दिनों के अंतराल पर नियमित रूप से फसल निरीक्षण करें।
2. निरीक्षण के साथ ही नाशी कीटों एवं मित्र कीटों की संख्‍या के आंकलन हेतु जाल का भी उपयोग करें।
3. प्रकाश के प्रति आकर्षित होने वाले कीटों के निरीक्षण हेतु 125 वाट मरक्‍यूरी वेपर बल्व युक्‍त प्रकाश प्रपंच का प्रति रात्रि में 2 घंटे लगातार उपयोग करें। (7 बजे से 9 बजे तक)
आर्थिक क्षति स्‍तर (ई.टी.एल.)
समन्वित नाशी कीट प्रबंधन के उपाय:
(अ) सस्‍य क्रियाओं द्वारा:
1. ग्रीष्‍म कालीन गहरी जुताई- ग्रीष्‍म कालीन गहरी जुताई, मेड़ें की सफाई तथा पिछली फसल के अवशेषों को नष्‍ट करने से तना छेदक, कीट की इल्लियॉं एवं शंखियॉं इत्‍यादि भूमि से ऊपर आकार तेज धूप, अधिक तापमान एवं पक्षियों द्वारा नष्‍ट हो जाते हैं।
2. बुवाई/रोपाई का समय- शीघ्र एवं उचित समय पर बुवाई/रोपाई करना आवश्‍यक है। नर्सरी में बीजों की बुवाई जून माह में तथा रोपाई जुलाई माह तक पूर्ण कर लेने पर नाशीकीटों का प्रकोप कम किया जा सकता है।
3. रोपों का उपचार- रोपाई से पूर्व रोपों की जड़ों को क्‍लोरपायरीफास 20 ई.सी. (200 मि.ली. दवा 200 लीटर पानी) के घोल में डुबाकर प्रति एकड़ की दर से उपचारित करना चाहिये।
4. स्‍वस्‍थ बीज, प्रतिरोधक (प्रकोप सहने योग्‍य) जातियों का चुनाव करें जैसे
(ब) यांत्रिक क्रियाओं द्वारा:
1. हानिकारक कीटों के अण्‍ड समूह एवं इल्लियों को एकत्रित कर नष्‍ट करें।
2. पौधे के कीट प्रकोपित भागों को नष्‍ट करें।
3. रोपों की प‍त्तियों के अग्र सिरे को रोपाई पूर्व काट कर अलग कर दें।
4. मरक्‍यूरी वेपर 125 वाट बल्‍वयुक्‍त प्रकाश प्रपंच को प्रति रात्रि लगभग 2 घंटे (7 से 9 बजे) चलायें।
5. फैरोमोन ट्रेप प्रपंच का उपयोग करें।
(स) जैविक क्रियाओं द्वारा:
1. संरक्षण: निम्‍नलिखित जैविक कीट नियंत्रण साधनों को संरक्षित कर जैव नियंत्रण को प्रोत्‍साहित किया जा सकता है। जैसे- स्‍पाइडर (मकड़ी), स्‍टेफेलिनिड बीटल, ड्रेगन फ्लाई, मिरिड बग, मिनोचिलस, ट्राइकोग्रामा कोटेसिया (अण्‍ड परजीवी), प्‍लेटीगेस्‍टर, नियानस्‍टेट्स, हेपिलोगोनाटोपस, एपेन्‍टेलिस, टिलेनोमस, ट्रेस्टिकस इत्‍यादि।
2. वृद्धि: धान की तना छेदक इल्लियों के नियंत्रण हेतु ट्राइकोग्रामा जेपोनिकम अण्‍ड परजीवी के 50,000 अण्‍डे प्रति हेक्‍टेयर प्रति सप्‍ताह की दर से छह सप्‍ताह तक रोपाई के 30 दिन बाद से खेत में छोड़ना प्रारंभ करें।
(द) रासायनिक कीटनाशकों द्वारा: समन्वित नाशी जीव प्रबंधन के अनुसार रासायनिक कीटनाशकों का प्रकोप आवश्‍यकतानुसार, सुरक्षित एवं अंतिम उपाय के रूप में ही करें। पत्‍ती भक्षक एवं तना छेदक हेतु मेलाथियान 50 ई.सी. 500 मि.ली./हेक्‍टेयर या इंडोसल्‍फान 35 ई. सी. 1000 मि.ली./हेक्‍टेयर या साइपरमेथिरिन 25 ई.सी. 250 मि.ली./हेक्‍टेयर या मिथो‍मिल 40 एस.पी. 1000 ग्राम/हेक्‍टेयर की दर से उपयोग करें। रस चूसक कीटों हेतु मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. 1000 मि.ली./हेक्‍टेयर या ट्राइजोफास 40 ई.सी. 1000 मि.ली./हेक्‍टेयर या डाइमिथोएट 30 ई.सी. 500 मि.ली./हेक्‍टेयर या कारटप हाइड्रोक्‍लोराइड 50 एस.पी. 1000 मि.ली./हेक्‍टेयर या फोरेट 10 जी 15 किग्रा./हेक्‍टेयर की दर से उपरोक्‍त में से किसी एक दवा का उपयोग करें।
(क) चूहों का नियंत्रण: इनके नियंत्रण के लिये जिंक फास्‍फाइड 2 प्रतिशत दवा का उपयोग करें। इसके लिए आवश्‍यकतानुसार जहरीला चारा बनायें। 100 ग्राम जहरीला चारा बनाने के लिए किसी एक प्रकार के अनाज के दाने को 3-4 घंटे पानी में फुलाकर तथा पानी निथार कर उसमें किसी भी खाने के तेल को अच्‍छी तरह मिलायें, तत्‍पश्‍चात उसमें 2.5 ग्राम जिंक फास्‍फाइड मिलाऐं। चारे को चूहों के बिलों में डाल दें तथा बिलों को बंद कर दें। जहरीला चारा देने से पहले चूहों को सादे भोजन से एक या दो दिन लहटाना अच्‍छा होता है।
(ब) रोग: धान की प्रमुख बीमारियों के नाम, कवक उनके लक्षण, पौधों की अवस्‍था, जिसमें आक्रमण होता है, निम्‍नानुसार है:
1. झुलसा रोग:
आक्रमण: पौधे से लेकर दाने बनने तक की अवस्‍था तक इस रोग का आक्रमण होता है। इस रोग का प्रभाव मुख्‍यत: पत्तियों पर प्रकट होता है। इस रोग से पत्तियों, तने की गॉंठों, बाली पर ऑंख के आकार के धब्‍बे बनते हैं। धब्‍बे बीच में राख के रंग के तथा किनारों पर गहरे भूरे या लालिमा लिये होते हैं। कई धब्‍बे मिलकर सफेद रंग के बड़े धब्‍बे बना लेते हैं जिससे पौधा झुलस जाता है। गॉंठों पर या बालियों के आधार पर प्रकोप होने पर पौधा हल्‍की हवा से ही गॉंठों पर से तथा बाली के आधार से टूट जाता है।
रोग की सुप्‍त अवस्‍था/फैलाव: यह रोग बीज जनित है पर बाद में रूग्‍न पौधों, नीदों तथा हवा द्वारा फैलता है।
नियंत्रण:
1. स्‍वच्‍छ खेती करना आवश्‍यक है। खेत में पड़े पुराने पौध अवशेष को भी नष्‍ट करें।
2. रोग रोधी किस्‍मों का चयन करें। जैसे आदित्‍य, तुलसी, जया, बाला, पंकज, साबरमती, गरिमा, प्रगति इत्‍यादि।
3. बीजोपचार करें- बीजोपचार कार्बेन्‍डाजिम अथवा बेनोमायल- 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की मात्रा से घोल बनाकर 6 से 12 घंटे तक बीज को डुबोयें, तत्‍पश्‍चात छाया में बीज को सुखाकर बोनी करें।
4. खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर कार्बेन्‍डाजिम 1 ग्राम या हिनोसान 1 मि.ली. या मेंक्‍कोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिये। दैहिक दवायें अधिक प्रभावी है।
धान की जातियों को क्षेत्रानुसार चुनाव करने से इस रोग से बचा जा सकता है।
2. भूरा धब्‍बा या पर्णचित्‍ती रोग:
आक्रमण: इस रोग का आक्रमण भी पौध अवस्‍था से दाने बनने की अवस्‍था तक होता है।
लक्षण: मुख्‍य रूप से यह रोग पत्तियों, पर्णछन्‍द तथा दानों पर आक्रमण करता है। पत्तियों पर गोल अंडाकर, आयताकार छोटे भूरे धब्‍बे बनते हैं जिससे पत्तियॉं झुलस जाती हैं तथा पूरा का पूरा पौधा सूखकर मर जाता है। दाने पर भूरे रंग के धब्‍बे बनते हैं तथा दाने हल्‍के रह जाते हैं।
नियंत्रण: यह रोग बीज जनित है परंतु खरपतवार तथा बाद में रूग्‍न पौधों से तथा हवा से भी इस रोग का फैलाव होता है। अत: खेत में पड़े पुराने पौध अवशेष को नष्‍ट करें। रोग की रोकथाम के लिये झोंका रोग की विधि से बीजोपचार करें। खड़ी फसल पर लक्षण दिखते ही मेन्‍कोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें तथा निरोधक जातियों जैसे- क्रांति, आई.आर.-36 की बुवाई करें।
3. खैरा रोग: यह रोग भूमि में जस्‍ते की कमी के कारण होता है।
आक्रमण: पौधे से लेकर बाढ़ की अवस्‍था में रोग के लक्षण दिखाई देते हैं। प्रदेश के अधिकांश जिलों में जिंक की कमी पाई जाती है।
लक्षण: जस्‍ते की कमी वाली खेत में पौध रोपण के 2 सप्‍ताह के बाद ही पुरानी पत्तियों के आधार भाग में हल्‍के पीले रंग के धब्‍बे बनते हैं, जो बाद में कत्‍थई रंग के हो जाते हैं, जिससे पौधा बौना रह जाता है तथा कल्‍ले कम निकलते हैं एवं जड़ें भी कम बनती हैं तथा भूरी रंग की हो जाती है।
नियंत्रण:
1. खैरा रोग के नियंत्रण के लिये 20-25 किग्रा. जिंक सल्‍फेट प्रति हेक्‍टेयर बुवाई पूर्व उपयोग करें।
2. पौध रोपण से पहले पौधे को 0.4 प्रतिशत जिंक सल्‍फेट के घोल में 12 घंटे तक डुबाकर रोपण करें।
3. खड़ी फसल में 1000 लीटर पानी में 5 किलोग्राम जिंक सल्‍फेट तथा 2.5 किग्रा. बिना बुझा हुआ चूने के घोल का मिश्रण बनाकर उसमें 2 किलोग्राम यूरिया मिलाकर छिड़काव करने से रोग का निदान तथा फसल की बढ़वार में वृद्धि होती है।
4. कुछ जातियों में खैरा रोग का प्रकोप कम होता है: जैसे- रतना, अन्‍नपूर्णा, कावेरी, साबरमती- कुछ में मध्‍यम- जैसे- आई.आर. 8, पदमा, बाला, आई.आर. 20, कृष्‍णा तथा साकेत तथा कुछ में अधिक जैसे- जया, पंकज, सफरी इत्‍यादि। अत: क्षेत्र के अनुसार जाति का चयन करें।
4. शाकाणु पर्ण रोग:
लक्षण: इसका आक्रमण बाढ् की अवस्‍था में होता है। इस रोग में पौधे की नई अवस्‍था में नसों के बीच में पारदर्शकता लिये हुए लंबी-लंबी धारियॉं पड़ जाती हैं, जो बाद में कत्‍थाई रंग ले लेती हैं।
रोग की सुप्‍त अवस्‍था/फैलाव: झुलसन रोग की तरह ही इस रोग का फैलाव होता है।
नियंत्रण:
1. शाकाणु झुलसन की तरह बीजोपचार करें।
2. शाकाणु पर्णधारी रोग के लिये आई.आर. 20, श्रांगृवि और कृष्‍णा, जातियॉं रोग सहिष्‍णु पाई गई हैं।
5. दाने का कंड़वा:
आक्रमण: दाने बनने की अवस्‍था में।
लक्षण: बाली के 3-4 दानें में कोयले जैसा काला पाउडर भरा होता है, जो या तो दाने के फट जाने से बाहर दिखाई देता है या बंद रहने पर सामान्‍य दाने जैसा ही रहता है, परंतु ऐसे दाने देर से पकते हैं तथा हरे रहते हैं। सूर्य की धूप निकलने से पहले देखने पर संक्रमित दानों का काला चूर्ण स्‍पष्‍ट दिखाई देता है।
रोग की सुप्‍त अवस्‍था/फैलाव: रोगाणु एक वर्ष से अधिक सक्रिय रहते हैं।
नियंत्रण: इस रोग का प्रकोप अभी तक तीव्र नहीं पाया गया है। अत: उपचार की आवश्‍यकता नहीं है, परंतु अधिक नत्रजन देने से रोग अधिक बढ़ता है। अत: खेत में संतुलित खाद का प्रयोग करना चाहिये।
6. शाकाणु झुलसन रोग:
आक्रमण: बढ़वार की किसी भी अवस्‍था में इस रोग का आक्रमण हो सकता है।
लक्षण: इस रोग में पत्तियों पर जलसिक्‍त पार भाषक धब्‍बे प्रकट होते हैं, जो बाद में सिरे तथा किनारे से सूखने लगती हैं, सिरे और किनारे टेढ़े-मेढ़े अनियमित होते हैं तथा पौधे झुलसे हुये से लगते हैं।
रोग की सुप्‍त अवस्‍था/फैलाव: रोग के जीवाणु मिट्टी और बीज में रहते हैं। इसका फैलाव रोग ग्रसित पौधों के संपर्क तथा सिंचाई के पानी से होता है।
नियंत्रण:
1. स्‍वच्‍छ खेती को प्राथमिकता देना आवश्‍यक है। खेत में पानी की निकासी करें।
2. बोने से पूर्व 6 ग्राम स्‍ट्रेप्‍टोसाकलिन दवा को 20 लीटर पानी के घोल से बीज उपचारित करें।
3. खड़ी फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देने पर उपरोक्‍त दवा के घोल का छिड़काव करें अथवा 1 ग्राम ताम्रयुक्‍त दवा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
4. शाकाणु प्रतिरोधक जातियों का उपयोग करें- जैसे आई.आर. 20, रतना, जया, बाला, कृष्‍णा इत्‍यादि।
कटाई-गहाई एवं भण्‍डारण: पूरी तरह से पकी फसल की कटाई करें। पकने के पहले कटाई करने से दाने पोचे हो जाते हैं। कटाई में विलम्‍ब करने से दाने झड़ते हैं तथा चावल अधिक टूटता है। फसल को चूहों से भी बचाना बहुत जरूरी होता है। कटाई के बाद फसल को 1-2 दिन खेत में सुखाने के बाद खलियान में ले जाना चाहिए। खलियान में ठीक से सुखाने के बाद गहाई करनी चाहिए। गहाई के बाद उड़ावनी करके साफ दाना इकट्ठा करना चाहिये और अच्‍छी तरह धूप में सुखाने के बाद भण्‍डारण करना चाहिये।

गेहूँ

गेहूँ

गेहूँ प्रदेश की प्रमुख धान्‍य फसल है। भारत की खाद्यान्‍न संबंधित आत्‍मनिर्भरता तथा आर्थिक उन्‍नति में इसका महत्‍वपूर्ण योगदान है। प्रदेश में इसका कुल रकबा 269.50 हजार हेक्‍टेयर तथा उत्‍पादकता 1859 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर है, जो की अन्‍य प्रदेशों की तुलना में कम है। उन्‍नत किस्‍म व नई उत्‍पादन तकनीक को अपनाकर निश्चित ही उत्‍पादन में वृद्धि की जा सकती है।
भूमि का चुनाव: गेहूँ की खेती उचित जल प्रबंध के साथ सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। विपुल उत्‍पादन के लिये गहरी एवं मध्‍यम दोमट भूमि अधिक उपयुक्‍त है।
भूमि की तैयारी:
(अ) असिंचित क्षेत्र: वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में छोटे-छोटे कन्‍टूर बनाकर भूमि के कटाव और वर्षा जल को रोका जाना चाहिए। गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें। नमी संरक्षण हेतु प्रत्‍येक वर्षा के बाद बतर आने पर समय-समय पर खेत की जुताई करते रहें तथा वर्षा समाप्‍त होने पर प्रत्‍येक जुताई के बाद पाटा अवश्‍य लगायें।
(ब) सिंचित क्षेत्र: खरीफ फसल काटने के तुरंत बाद ही जमीन की परिस्थिति के अनुसार जुताई करें। यदि खेत कड़ा हो और जुताई संभव न हो तब सिंचाई देकर जुताई करें। दो या तीन बार बखर या हल चला कर जमीन भुरभुरी करें, अंत में पाटा चला कर भूमि समतल बनायें।
बुवाई का समय: सिंचाई की व्‍यवस्‍था के आधार पर निम्‍नानुसार बोनी करें:-
1. असिंचित गेहूँ 15 अक्‍टूबर से 31 अक्‍टूबर तक
2. अर्द्धसिंचित गेहूँ 15 अक्‍टूबर से 10 नवम्‍बर तक
3. सिंचित गेहूँ समय से 10 नवम्‍बर से 25 नवम्‍बर तक
4. सिंचित गेहूँ देरी से 05 दिसम्‍बर से 20 दिसम्‍बर तक
बीज की मात्रा: बीज की मात्रा का निर्धारण दानों के वजन एवं अंकुरण क्षमता पर निर्भर करता है। सामान्‍यत: 38 ग्राम प्रति एक हजार बीज के वजन वाली किंस्‍मों का बीज 100 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर की दर से बोए। देरी से बोनी की स्थिति में बीज दर में 20-25 प्रतिशत बढोत्‍तरी करके बोनी करें। अंकुरण कम होने की दशा में बीज दर आवश्‍यकतानुसार निर्धारण कर बोनी करें।
बीजोपचार: दीमक के नियंत्रण हेतु बीज को कीटनाशक दवा क्‍लोरोपाइरीफास 20 ई.सी. 400 मि.ली. 5 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति क्विंटल बीज के हिसाब से बीजोपचार करें। इसके पश्‍चात कार्बोक्सिन (विटावेक्‍स 75 डब्‍ल्‍यू.पी.) या बेनोमिल (बेनलेट 50 डब्‍ल्‍यू.पी.) 1.5-2.5 या थाइरम 2.5-3 या थाइरम 2.5-3 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुवाई पूर्व बीज को एजेटोबेक्‍टर 5-10 ग्राम एवं पी.एस.बी. कल्‍चर 10-20 ग्राम प्रति किलो ग्राम के हिसाब से उपचारित करें।
बुवाई का तरीका: असिंचित अवस्‍था में कतार से कतार की दूरी 30 सेमी. अर्धसिंचित अवस्‍था में कतार की दूरी 23-25 सेमी. तथा सिंचित अवस्‍था में कतार से कतार की दूरी 20-23 सेमी. रखें। पिछेती बोनी की अवस्‍था में कतार से कतार की दूरी 18 सेमी. रखना चाहिए। बीज की बुवाई 3-4 सेमी. गहराई पर करें। शुष्‍क बुवाई की स्थिति में उथली बोनी अंकुरण के लिये लाभप्रद होती है।
खाद उर्वरक की मात्रा:
अ. असिंचित अवस्‍था: आधार खाद के रूप में 40 किलोग्राम नत्रजन, 20 किलो ग्राम स्‍फुर प्रति हेक्‍टेयर बुवाई के समय दुफन या नारी के अगले पोर से देना चाहिए। मिट्टी परि‍क्षण में यदि पोटाश की मात्रा कम पाई जाती है तो 10 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर के हिसाब से बुआई के समय देना चाहिए। खाद को बीज से 2-3 सेमी. नीचे डालना चाहिए।
ब. अर्धसिंचित अवस्‍था: नत्रजन 60 किलो ग्राम, स्‍फुर 40 किलोग्राम तथा 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्‍टेयर देना चाहिए। स्‍फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बोनी के समय आधार रूप में, शेष आधी 30 किलो ग्राम मात्रा प्रति हेक्‍टैयर प्रथम सिंचाई पर दें।
स. सिंचित अवस्‍था: सिंचित अवस्‍था में नत्रजन 100-120 किलो ग्राम, स्‍फुर 60 किलो ग्राम तथा पोटाश 30 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर देना चाहिए। बोनी के समय नत्रजन आधार रूप में ½ तथा पूरी मात्रा में स्‍फुर व पोटाश देना चाहिए। शेष ½ नत्रजन में से ¼ प्रथम सिंचाई (20-21 दिनों) पर तथा ¼ दूसरी सिंचाई (40-45 दिनों) पर देना चाहिए। जिन खेतों में मिट्टी परिक्षण पर जस्‍ते की कमी पाई जाती है वहॉं 25 किलो ग्राम जिंक सल्‍फेट प्रति हेक्‍टेयर बुवाई के पहले खेत में आधार खाद के रूप में देना चाहिए। यदि खेतों में सतत् गेहूँ की खेती की जा रही है तो 2 वर्ष में एक बार 25 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर की दर से जिंक सल्‍फेट डालना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन:
अ. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार: इनके नियंत्रण के लिए 2-4, डी सोडियम साल्‍ट 0.5 किलो ग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हेक्‍टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर 25-30 दिन बाद छिड़काव करें। दवा का 40 दिन बाद छिड़काव फसल के लिये हानिप्रद होता है। गेहूँ के साथ चना, मसूर, मटर की फसल होने पर इस दवा का प्रयोग न करें।
ब. संकर पत्ती वाले खरपतवार: संकर पत्ती वाले खरपतवार में जंगली जई, चिरैया बाजरा की समस्‍या पाई गई है। इससे बीज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। जिन खेतों में खरपतवार दिखाई दे, उन्‍हें उखाड़ कर नष्‍ट कर दें। यदि खेत में नींदा बहुत अधिक है तो फसल चक्र अपनाएं। ऐसी स्थिति में बरसीम या रिजका की फसल लेना लाभप्रद है क्‍योंकि चारे की कटाई के साथ ये खरपतवार कट कर नष्‍ट हो जाते है। रासायनिक नियंत्रण हेतु:-
मेटाक्‍सुरान (डोसानेक्‍स) 1-1.5 किलो ग्राम सक्रिय तत्‍व या पेन्‍डीमिथलीन 1.00 किलोग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हेक्‍टेयर की दर से बोनी के तुरंत बाद तथा अंकुरण के पहले 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
आइसोप्रोटूरान 0.75 किलोग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हेक्‍टेयर 600 लीटर पानी में घोल बनाकर बोनी के 30-35 दिन बाद छिड़काव करें। इसके प्रयोग से दोनों ही प्रकार के खरतपवार नियंत्रित किये जा सकते हैं।
खेत में दोनों प्रकार के नीदा है तो आइसोप्रोटूरान 0.75 किलो ग्राम सक्रिय तत्‍व तथा 2-4, डी 0.5 किलो ग्राम सक्रिय तत्‍व का मिश्रण प्रति हेक्‍टेयर की दर से उपरोक्‍त बताई विधि अनुसार उपयोग करें। इस मिश्रण के प्रयोग से चिरैया, बाजरा, जंगली जई एवं अन्‍य खरपतवारों को प्रभावी रूप से नियंत्रित किया जा सकता है।
नीदा नाशक दवा का छिड़काव प्रथम सिंचाई के एक सप्‍ताह बार करें। छिड़काव के समय मिट्टी में नमी का होना अति आवश्‍यक है।
बोवाई पूर्व बीज को छलना लगाकार साफ करें तथा खरपतवारों के बीजों को अलग करें। पलेवा देकर खेत में जमें खरपतवारों को बखर चलाकर नष्‍ट किया जा सकता है।
पौध संरक्षण:
(अ) रोग: गेहूँ की उपज पर रोग के प्रकोप से उपज में काफी प्रभाव होता है। केवल गेरूआ रोग से ही गेहूँ की उपज में लगभग 12 प्रतिशत की हानि होती है।
अ. भूरा गेरूआ: गेहूँ की पत्‍तियों पर नारंगी भूरे रंग के धब्‍बे पड़ जाते है जो गोल होते है।
ब. काला गेरूआ: इसका प्रकोप अधिकतर तने पर आता है।
स. पीला गेरूआ: इस रोग में पत्‍तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के धब्‍बे उभर आते है।
इन रोगों की रोकथाम के लिये रोगरोधी किस्‍में लगाये तथा उर्वरकों का संतुलित इस्‍तेमाल करें, फसल की सामयिक बोनी करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर जिंक मेगनीज कार्बामेट 2 किग्रा. या जिनेव 2.5 किग्रा. प्रति हेक्‍टेयर 1000 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें।
1. कड़वा रोग: यह बीज जनित रोग है। रोगी पौधों में बालियां कुछ पहले निकल जाती है। इन बालियों में दानों के स्‍थान पर काला चूर्ण भर जाता है, जो हवा के झोके के साथ एक पौधे से दूसरे पौधों तक पहुँच जाता है। रोग्ग्रस्‍त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। रोगरोधी किस्‍मों को ही लगाना चाहिए। बोनी के पहले बीज को वीटावेक्‍स (कार्बोक्सिन) 2.5 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचार करना चाहिये।
2. कर्नलबन्‍ट: इस रोग का प्रभाव दानों पर होता है। दानों में काले रंग का पाउडर बन जाता है। यह रोग बीज द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम के लिये जिस खेत में रोग लगा हो उस खेत में 2-3 वर्ष तक गेहूँ नहीं होना चाहिए। बोने से पहले बीज को थायरम 2.5 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें। फूलने की अवस्‍था में सिंचाई न करें।
3. पर्ण ब्‍लास्‍ट: पत्तियॉं किनारों से सूखना प्रारम्‍भ करती हैं। आरंभ में पत्तियों में अण्‍डाकार सूखे धब्‍बे दिखाई देते हैं, बाद में यह टूटकर पूरी पत्तियों में फैल जाते हैं। नियंत्रण हेतु डायथेन एम-45 (0.25 प्रतिशत) के घोल का छिड़काव फसल पर करें।
(ब) कीट: गेहूँ की फसल में दीमक, जड़माहो, भूरी मकड़ी आदि कीटों का प्रकोप होता है। इनके नियंत्रण हेतु एकीकृत कीट नियंत्रण विधि अपनाएं।
एकीकृत कीट नियंत्रण
1. खेत की अच्‍छी तरह जुताई करना चाहिये।
2. कच्‍ची व अधपकी गोबर की खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्‍योंकि इसके प्रयोग से दीमक के प्रकोप की संभावना अधिक होती है।
3. खेत के आसपास मेढ़ों में यदि दीमक का बमीठा हो तो उसे गहरा खोदकर नष्‍ट कर देना चाहिए।
4. गेहूँ की बुवाई समय पर तथा बीज उपचारित करें। यदि दीमक के प्रकोप की संभावना है तब बीज को क्‍लोरोपायरीफास 20 ई.सी. 400 मि.ली. 5 लीटर पानी में घोलकर 100 किलो ग्राम बीज को उपचारित करें। देरी से बोये गये (दिसम्‍बर-जनवरी) गेहूँ पर जड़ माहो को प्रकोप अधिक होता है। अत: समय पर बोनी करें।
5. खड़ी फसल पर दीमक या जड़माहो का प्रकोप होने पर क्‍लोरोपायरीफास 20 ई.सी. 1.25 लीटर प्रति हेक्‍टेयर की दर से दवा को सिंचाई जल के साथ दें। अर्धसिंचित भूमि में उपरोक्‍त दवा की मात्रा 3 लीटर पानी में घोलकर 50 किलोग्राम रेत में मिलाकर खेत में फैलाकर पानी लगावें।
6. अर्धसिंचित फसल में नवम्‍बर-दिसम्‍बर माह में कल्‍ला छेदक भृंग के नियंत्रण के लिये मेलाथियान 500 मि.ली. या मिथाईल डेमेटान 650 मि.ली. दवा का 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्‍टेयर छिड़काव करें। इससे जेसिड का भी नियंत्रण हो जाता है।
7. भूरी मकड़ी का प्रकोप असिंचित गेहूँ पर होता है। नियंत्रण के लिये फारमोथियान 25 ई.सी. का 650 मि.ली. प्रति हेक्‍टेयर या मिथाइल डेमेटान का 650 मि.ली. प्रति हेक्‍टेयर की दर से छिड़काव करें। यदि आवश्‍यक हो तो 15 दिन बाद दवा का पुन: छिड़काव करें।
कटाई एवं गहाई: पकी फसल की कटाई जल्‍दी करना चाहिये, क्‍योंकि आग एवं ओला से कभी-कभी पकी फसल को बहुत नुकसान होता है। अधिक पकी फसल काटने से बालियॉं टूटती हैं और दाने झड़ते हैं। फसल की कटाई सुबह और शाम के समय करना चाहिए, इससे दाने कम झड़ेंगे। कटाई तेज धार वाले हंसिया से करना चाहिए। काटी गई फसल को तुरंत बोझों में बॉध लेना चाहिये, क्‍योंकि कटाई के समय तेज हवा चलने से कटी हुई फसल जड़ कर खराब हो जाती है। काटी गई फसल के बोझों को बैलगाड़ी या ट्रेक्‍टर ट्राली से ढुलाई करके खलिहान से इकट्ठा करना चाहिए। खलिहान में थ्रेसर या बैलों से गहाई करना चाहिए। इसके बाद उड़वानी द्वारा दाना अलग करके धूप में सुखाकर भंडारित करना चाहिये। खलिहान में आग और चूहों से बचाव करना चाहिए।
औसत उपज:
सिंचित दशा में : 40-50 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर
बारानी दशा में : 20-25 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर

कपास

कपास

कपास रेशे वाली औद्योगिक एवं उपयोगी फसल है। कपास की खेती मध्‍यप्रदेश में लगभग 6 लाख हेक्‍टेयर भूमि में की जाती है। सिंचित कपास का रकबा लगभग 1 लाख हेक्‍टेयर है। प्रदेश में देशी तथा अमेरिकन दोनों प्रकार की कपास की खेती होती है। देशी कपास का उत्‍पादन मुख्‍यत: हल्‍की भूमि वाले क्षेत्रों में किया जाता है। देशी कपास का क्षेत्र लगभग 1 लाख हेक्‍टेयर है। मध्‍य प्रदेश में कपास का उत्‍पादन लगभग 15-16 लाख गॉंठ (370 किलोग्राम प्रति गॉंठ) है।
उपयुक्‍त क्षेत्र: मध्‍य प्रदेश में कपास की खेती के लिये निम्‍नलिखित क्षेत्र उपयुक्‍त पाये गये हैं।
(अ) निमाड़ क्षेत्र: औसत वर्षा लगभग 600 से 800 मिली मीटर, भूमि मध्‍यम, हल्‍की काली एवं अच्‍छे निथार वाली है। इसमें नत्रजन कम एवं स्‍फुर तथा पोटाश मध्‍यम मात्रा में पाये जाते हैं। इसके अंतर्गत खरगोन, खंडवा तथा धार जिले के कुक्षी तथा मनावर क्षेत्र आते हैं।
(ब) मालवा क्षेत्र: क्षेत्रफल करीब 50 हजार हेक्‍टेयर- वर्षा 1000 से 1500 मिली मीटर, मिट्टी मध्‍यम तथा गहरी, नत्रजन की कमी, स्‍फुर तथा पोटाश प्रचुर मात्रा में है। इनमें इंदौर, देवास, धार (कुक्षी) तथा मनावर छोड़कर उज्‍जैन, शाजापुर, रतलाम, राजगढ़, सीहोर जिले आते हैं।
(स) नर्मदा घाटी: क्षेत्रफल करीब 5 हजार हेक्‍टेयर। यह पूरा क्षेत्र पश्चिमी होशंगाबाद तथा हरदा जिले में आता है। वर्षा 1200 मि.मी. तथा भूमि मध्‍यम काली और रेतीली मटियार है।
(द) सतपुड़ा क्षेत्र: क्षेत्रफल करीब 25 हजार हेक्‍टेयर। इस क्षेत्र में सांसर, पाण्‍डुरना, छिंदवाड़ा तथा भेसदही और मुलताई, बैतूल आते हैं। वर्षा 1000-1200 मि.ली. होती है। भूमि हल्‍की तथा मध्‍यम काली हैं।
(ई) झाबुआ क्षेत्र: इसमें झाबुआ जिले के पेटलावद, अलीराजपुर आदि क्षेत्र हैं। कुल रकबा लगभग 20 हजार हेक्‍टेयर है।
भूमि का चुनाव: बालुई, दोमट या मध्‍यम गहरी भूमि जिसमें पर्याप्‍त जीवांश एवं उत्‍तम निकास हो, कपास की फसल के लिये उपयुक्‍त है। भूमि का पी.एच. मान 6.5 से 7.5 बीच होना चाहिये।
भूमि की तैयारी: फसल के पुराने अवशेष निकाल कर खेत की अच्‍छी सफाई करें। खेत की मिट्टी देशी हल अथवा कल्‍टीवेटर चलाकर पलट दें। तीन साल में एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की गहरी जुताई करना आवश्‍यक है। मानसून से पहले बखर या कल्‍टीवेटर से 2-3 बार जुताई कर खेत समतल करें। अंतिम बखरनी से पूर्व 40-45 गाड़ी पका हुआ गोबर खाद या कम्‍पोस्‍ट प्रति हेक्‍टेयर की दर से मिलायें। तीन वर्ष में एक बार जिंक सल्‍फेट, 25 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर की दर से गोबर खाद में मिलाकर दें।
बोनी का समय: सिंचित क्षेत्र में पलेवा देकर कपास की बोनी 25 मई से जून के प्रथम सप्‍ताह तक करें। असिंचित कपास की बोनी वर्षा प्रारंभ होने से एक सप्‍ताह पूर्व सूखे में या वर्षा प्रारंभ होने पर सरता या चौफुली पद्धति से करें।
बीजोपचार: बोने से पूर्व बीज को प्रति किलोग्राम 2.5 ग्राम कार्बेन्‍डाजिम या केप्‍टान दवा से उपचारित करें। इमिडा क्‍लोप्रिड 7.0 ग्राम अथवा कार्बोराल्‍फान 20 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज उपचारित कर बोने से फसल को 40 से 60 दिन तक रस चूसक कीड़ों से सुरक्षा मिलती है।
बोआई विधि: संकर कपास 90 X 90 सेमी. या 120 X 90 सेमी. की दूरी पर लगाएं तथा उन्‍नत जातियों के लिए 60 X 60 सेमी. की दूरी सामान्‍यत: रखें। हल्‍की भूमि में यह दूरी 45 X 45 अथवा 45 X 30 सेमी. रखी जा सकती है।
खाद एवं उर्वरक:
(अ) जीवांश खाद: गोबर की खाद, कम्‍पोस्‍ट/नाडेप कम्‍पोस्‍ट 40-45 गाड़ी प्रति हेक्‍टेयर, नीम की खली 25-30 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर डालें।
(ब) रासायनिक उर्वरक: संतुलित मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग आवश्‍यक है। निम्‍न मात्रा (किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर) में उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए:
1. सिंचित 160 नत्रजन : 80 स्‍फुर : 40 पोटाश
2. अर्द्धसिंचित 100 नत्रजन : 60 स्‍फुर : 40 पोटाश
3. असिंचित 80 नत्रजन : 40 स्‍फुर : 40 पोटाश
बोनी के समय खाद बीज के नीचे 6-10 सेमी. गहराई पर दें। अंकुरण के 60-65 दिन बाद पौधे के पास रिंग पद्धति अथवा कॉलम पद्धति से (गड्डे बनाकर) उर्वरक दें।
कपास के साथ उड़द, सोयाबीन, मूंगफली की अंतरवर्ती फसल लाभप्रद पाई गई है। इसे कतार छोड़ कतार जोड़ पद्धति से लगाएं। इसके अतिरिक्‍त संकर मक्‍का या तिल की अंतरवर्ती फसल लेना लाभकारी पाया गया है।
(क) कपास की हर 2 कतार के बाद दो कतार अंतरवर्ती फसल लगाएं। सिंचित में अंतरवर्ती फसल की कतारें 45 सेमी. तथा असिंचित में 30 सेमी. दूरी पर लगाएं।
(ख) कपास की हर 6-8 कतारों के बाद अरहर की दो कतारें लगाना लाभप्रद रहता है।
जीवित बिछावन: असिंचित कपास में कतारों के बीच, उड़द, मूंग, सोयाबीन अथवा फ्रेंचबीन 30-35 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर की बीज दर से लगाएं। इसे अंकुरण के 25 दिन बाद खेत में मिला दें। इससे खेत की नमी काफी दिनों तक बनी रहती है एवं भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
सिंचाई: वर्षा समाप्‍त होने पर हल्‍की भूमि में 12-15 दिन तथा मध्‍यम-भारी भूमि में 25-35 दिन के अंतराल पर आवश्‍यकतानुसार सिंचाई करें। कली एवं फूल बहार के समय नमी की आवश्‍यकता अधिक होती है। प्रत्‍येक बार एक कतार छोड़ कर सिंचाई करें।
खरपतवार नियंत्रण: अंकुरण के 20-25 दिन पश्‍चात हाथ से निंदाई कर कोल्‍पा- डोरा चलाएं। वर्षा के बीच समय मिलने पर डोरा चलाएं तथा हाथ से निंदाई करते रहें।
नींदा नाशक रसायन लासो (ऐलाक्‍लोर) 5 लीटर या पेंडीमिथिलीन 5 किग्रा. या डाययूरान 750 ग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हेक्‍टेयर के मान से 500-600 लीटर पानी में घोल कर बोआई के बाद एवं अंकुरण से पहले छिड़काव करें। दवा के प्रयोग के समय खेत में पर्याप्‍त नमी होना चाहिए।
कपास की चुनाई:
अ. केवल पूरी तरह खिले घेटों से कपास की चुनाई करें।
ब. गीले कपास की चुनाई न करें। ओस सूखने के बाद दिन में कपास की चुनाई करें।
स. चुने हुए कपास में पेड़ के सूखे पत्‍ते, डंठल, मिट्टी आदि रहने पर कपास की गुणवत्‍ता कम हो जाती है तथा बाजार भाव कम मिलता है।
ड. आखिरी तुड़ाई का कपास पहले की चुनाई में ना मिलाएं।
पौध संरक्षण:
(अ) कीट: कपास में मुख्‍यत: दो प्रकार के कीटों का प्रकोप देखा गया है।
1. रस चूसने वाले कीट: हरा मच्‍छर, माहो, तेला एवं सफेद मक्‍खी। इन कीटों का प्रकोप जुलाई से सितम्‍बर के मध्‍य प्राय: होता है। प्रकोपित पौधे की पत्तियां लाल व सिकुड़ जाती हैं, फलस्‍वरूप पौधों की बढ़वार बहुत कम होती है।
2. डेडूं छेदक इल्लियॉं: इनमें मुख्‍यत: चित्‍तीदार इल्‍ली, चने की इल्‍ली (अमेरिकन बालवर्म) एवं गुलाबी इल्‍ली है।
(अ) चित्‍तीदार इल्‍ली: इस इल्‍ली का प्रकोप फसल अंकुरण से 15-20 दिन की अवस्‍था पर एवं डेंडू बनने पर होता है। प्रकोप अगस्‍त से सितम्‍बर माह के मध्‍य अधिक होता है।
(ब) अमेरिकन बालवर्म: फूल अवस्‍था पर इसका प्रकोप शुरू होता है। प्रकोपित पुडि़यों के सहपत्र चौड़े होकर फैल जाते हैं व डेंडूओं में खुले बड़े छेद पाये जाते हैं। इन इल्लियों का प्रकोप अगस्‍त-सितम्‍बर से अक्‍टूबर-नवम्‍बर तक होता है।
(स) गुलाबी इल्‍ली: मालवा एवं निमाड़ में इस कीट का प्रकोप कम होता है। इल्‍ली फूलों की पंखुडि़यों को जाले से लपेट कर फिरकनी का आकार बना लेती है।
नियंत्रण:
1. फसल कटाई उपरांत अवशेषों को नष्‍ट करें।
2. ग्रीष्‍मकालीन मिण्‍डी की फसल को अप्रैल में समाप्‍त करें।
3. बोनी वर्षा आगमन के पूर्व सूखे खेतों में या वर्षा के तुरंत बाद करें।
4. कपास के साथ चौला अन्‍तरवर्तीय फसल के रूप में लें।
5. रस चूसने वाले कीट सहनशील प्रजातियां- खण्‍डवा’2, जे.के.-4, ताप्‍ती, जे.के.एच.वायु-1 लगायें।
6. बीजोपचार इमिडाक्‍लोप्रिड 7 ग्राम/प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से करें।
7. रस चूषक कीटों के प्रति सहनशील किस्‍मों को लगावें तथा दो माह तक कीटनाशकों का छिड़काव न करें।
8. आवश्‍यतानुसार 5% निम्‍बोली का रस एवं नीम का तेल एक लीटर प्रति हेक्‍टेयर की दर से छिड़काव करें।
9. फसल की 60-90 दिन की अवस्‍था के दौरान (यदि 40 पौधों में से 20 पौधों की फूल पुडियों कीट/प्रकोपित हैं व सहपत्र चौड़े हैं) तब ट्रायकोगामा 1.5 लाख अंडे प्रति हेक्‍टेयर की दर से या एन.पी.व्‍ही. 250 लीटर प्रति हेक्‍टेयर अथवा इण्‍डोसल्‍फान दवा का छिड़काव करें।
10. फसल की उपरोक्‍त अवस्‍था पर आर्गेनोफास्‍फेट्स या पायरेथ्राइड्स दवा का छिड़काव नहीं करें।
11. छिड़काव के 2-3 दिन बाद शेष बची हुई इल्लियों को एकत्रित कर नष्‍ट करें।
12. अक्‍टूबर के द्वितीय सप्‍ताह के बाद इण्‍डोसल्‍फान का छिड़काव नहीं करें।
13. निर्धारित आर्थिक क्षति स्‍तर, ई.टी.एल. (20 लार्वा प्रति 20 पौधे) होने पर क्‍यूनालफास अथवा क्‍लोरपयारीफास या प्रोफेनोफास 20-25 मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।
14. फेरोमोन्‍स ट्रेप 5 प्रति हेक्‍टेयर गुलाबी इल्‍ली (पिंक बालवर्म) के लिये उपयोग करें।
15. विलम्‍ब से आने वाले अमेरिकन बालवर्म एवं पिंक बालवर्म का प्रकोप फसल की 30-120 दिन की अवस्‍था पर होता है। इसके नियंत्रण के हेतु पायरेथ्राइड्स का उपयोग सेसेमम ऑयल (1 लीटर प्रति हेक्‍टेयर) के साथ प्रभावशाली पाया गया है।
16. दो या तीन दवाओं को एक साथ मिलाकर न छिड़कें।
17. एक ही प्रकार की दवा का लगातार उपयोग नहीं करें।
(ब) रोग: बीज को अम्‍ल उपचारित करने के बाद बोते समय स्‍ट्रेप्‍टोसायक्लिन के 200 पी.पी.एम. घोल में 20 मिनट तक डुबोये। जीवाणु झुलसा रोग की रोकथाम हेतु फसल (विशेषकर हाइब्रिड-4, डी.सी.एच.-32) पर फायटोलान या ब्‍लायटाक्‍स 50 एक किलो ग्राम + स्‍ट्रेप्‍टोसायक्लिन 6 ग्राम प्रति एकड़ का 15 दिन के अंतर पर छिड़काव करें। रोग रोधी संकर किस्‍में जे.के.एच.-1 तथा जे.के.एच.-2 का चयन करें। इन्‍हीं दवाओं के प्रयोग से आल्‍टनेरिया, माइरीधीसियम पर्ण झुलसा तथा डेंटू सड़न एवं दाहिया (रेमूलेरिया) रोग का भी नियंत्रण हो जाता है। जड़ सड़न रोग की रोकथाम हेतु केप्‍टान 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के मान से उपचार करें तथा कपास के साथ मोठ एवं मूंग की अंतरवर्तीय फसल लगायें। पौधे सूखने (नई विल्‍ट) की समस्‍या के निदान के लिये मुरझाते हुये पौधों की जड़ों में डी.ए.पी. + यूरिया के घोल का 3-4 लीटर प्रति पौधा दें। 100 लीटर घोल के लिये 1200 ग्राम डी.ए.पी. तथा 600 ग्राम यूरिया पर्याप्‍त होगा।
आवश्‍यक सुझाव:
1. क्षेत्र के अनुसार सिफारिश की गई किस्‍म लगाएं।
2. बीजोपचार कर सही विधि से उचित समय पर बोनी करें।
3. विभिन्‍न रासायनिक उर्वरक उचित मात्रा में सही विधि से उचित समय पर दें।
4. ऐजेटोबेक्‍टर एवं पी.एस.बी. कल्‍चर का उपयोग करें।
5. खरपतवार नियंत्रण एवं पौध संरक्षण तकनीक अपनाएं।
6. असिंचित कपास की फसल के बीच जीवित बिछावन का उपयोग कर खेत में अधिक समय तक नमी बनाएं रखें।

गन्‍ना

गन्‍ना

गन्‍ना एक महत्‍वपूर्ण नगदी फसल है। यह मध्‍यप्रदेश में प्राय: सभी क्षेत्रों में लगाई जाती है जहां पर सिंचाई की उचित व्‍यवस्‍था तथा खेत में पानी का निकास अच्‍छा होता है।
खेत की तैयारी: दोमट भूमि जिसमें पानी का निकास अच्‍छा हो, गन्‍ने के लिये सर्वोत्‍तम होती है। खेत की तैयारी के लिये ग्रीष्‍म ऋतु में मिट्टी पलटने वाले हल से दो बार आड़ी व खड़ी जुताई करें। अक्‍टूबर माह के प्रथम सप्‍ताह में जुताई कर पाटा चलाकर खेत समतल करें। रिजर की सहायता से खेत में 3 फीट की दूरी पर नालियां बनायें। बसंतकालीन गन्‍ने जो फरवरी मार्च में लगाया जाता है, नालियों का अंतर 2 फीट तक रखना चाहिए।
उन्‍नत बीज: गर्म हवा से उपचारित (50 से.ग्र. पर 4 घंटे) स्‍वस्‍थ, कीट व रोग सहित बीज का उपयोग करें। गन्‍ना का बीज स्‍वस्‍थ फसल से प्राप्‍त करना चाहिए।
जातियॉं:
शीघ्र पकने वाली जातियॉं: को.सी. 671, को. 7314, को. 8383, को. 87008 एवं को. 87010, को. जवाहर 86-141 एवं को. जवाहर 86-572 लगायें। गुड़ बनाने के लिये को.सी. 671, को. जवाहर 86-141 एवं को. 86-572 सर्वोत्‍तम है। इन जातियों की उपज 800-900 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर होती है।
मध्‍यम-देर से पकने वाली जातियॉं: को. 7318, को. 6304, को. 86032, को. 7219, को. जे.एन. 86-600 लगाई जाये। को. 7318 एवं को. 86032 गुड़ बनाने के लिये अधिक उपयुक्‍त है। इन जातियों की उपज 1000-1200 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर होती है।
बुवाई का समय: अधिक उपज के लिए बुवाई का सर्वोत्‍तम समय अक्‍टूबर-नवम्‍बर माह है। गन्‍ने की बोनी मार्च तक की जा सकती है। बसंतकालीन गन्‍ना फरवरी-मार्च में लगाना चाहिए।
अंतरवर्तीय फसलें: अक्‍टूबर-नवम्‍बर में 90 सेमी. की दूरी पर निकाली गरेड़ों में गन्‍ने की फसल बोते ही मेड़ों के दोनों ओर प्‍याज, लहसुन, आलू, रांजमा, ईसबगोल तथा सीधी बढ़ने वाली मटर लगाना बहुत उपयुक्‍त है। इन फसलों से गन्‍ने की फसल को कोई हानि नहीं होती है तथा इनसे किसान को अतिरिक्‍त नगद लाभ प्राप्‍त हो जाता है।
बसंतकालीन फसल में गरेड़ों की मेड़ों के दोनों ओर मूंग या उड़द लगाना बहुत लाभदायक है। इन अंतवर्तीय फसलों से अतिरिक्‍त लाभ मिल जाता है। अंतरवर्तीय फसलों की खाद की निर्धारित मात्रा गन्‍ने की फसल में दी मात्रा के अतिरिक्‍त देना चाहिए।
बीजोपचार व बुवाई: गन्‍ने के दो या तीन ऑंख वाले टुकड़े का कार्बेन्‍डाजिम 2 ग्राम/लीटर के घोल में 15-20 मिनट तक डुबाना चाहिए। इसके पश्‍चात टुकड़ों को नालियों में रखकर मिट्टी से ढ़क कर सिंचाई कर दें या नालियों में सिंचाई करके टुकड़ों को हल्‍के से नालियों में दबा दें। बीज की मात्रा 1,25,000 ऑंखें (कलिकायें) या 100 से 125 क्विंटल बीज प्रति हेक्‍टेयर लगायें।
खाद एवं उर्वरक: गन्‍ने में 300 किलोग्राम नत्रजन (650 किलोग्राम यूरिया) 80 किलोग्राम स्‍फुर (500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्‍फेट) एवं 60 किलोग्राम पोटाश (100 किलोग्राम म्‍यूरेट ऑफ पोटाश) प्रति हेक्‍टेयर देना चाहिऐ। स्‍फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोनी के पूर्व गरेड़ों में दें। नत्रजन की मात्रा अक्‍टूबर में बोई गई फसल के लिए 4 भागों में बांट कर अंकुरण के समय (30 दिन), कल्‍ले निकलते समय (90 दिन), हल्‍की मिट्टी चढ़ाते समय (120 दिन) दें। गन्‍ने की फसल में नत्रजन की एक-चौथाई मात्रा की पूर्ति अच्‍छी सड़ी गोबर की खाद या हरी खाद से करना बहुत लाभप्रद होता है।
उर्वरक की बचत:
1. यूरिया उर्वरक पर नीम, महुआ या करंज की खली के बारीक पाउडर से यूरिया को उपचारित करने से नत्रजन की बचत होती है।
2. गन्‍ना मिल का व्‍यर्थ पदार्थ सल्‍फीनेटेड प्रेसमड केक की 6 टन मात्रा या 4 टन प्रेसमड केक तथा 5 किलोग्राम एजेक्‍टोबेक्‍टर जीवाणु खाद का प्रयोग करने से 75 किलोग्राम नत्रजन की बचत होती है।
जैव उर्वरक: जैविक खादें फसल के लिये पोषक तत्‍वों का पूरक स्रोत हैं। गन्‍ना की फसल में एजोस्‍पीरिलियम, ग्‍लूकोनाटोबेक्‍टर एवं फास्‍फोबेक्‍टेरिया की पहचान मुख्‍य खादों के रूप में की गई है। यह जैविक खादें 20 प्रतिशत नत्रजन एवं 25 प्रतिशत स्‍फुर की प्रतिपूर्ति प्रत्‍यक्ष रूप से कर सकते हैं एवं अप्रत्‍यक्ष रूप से गन्‍ना वृद्धि में सहायक होते हैं। एजोस्‍पीरिलियम एवं ग्‍लूकोनासेटोबेक्‍टर गन्‍ना की जड़ों पर उपनिसेचित होकर वायुमंडलीय नत्रजन का स्थिरीकरण करते हैं। फास्‍फोबेक्‍टेरिया जड़ों के आसपास की मिट्टी में रहते हुए मृदा की अघुलनशील, अनुपलब्‍ध स्‍फुर को घुलनशील, उपलब्‍ध स्‍फुर परिवर्तन में सहायक होता है।
सूक्ष्‍म पोषक तत्‍व: गन्‍ना के शर्कर संचय, तंतु भाग एवं नत्रजन, स्‍फुर, पोटाश उपभोग क्षमता एवं गन्‍ना उत्‍पादकता में सूक्ष्‍म पोषक तत्‍वों का विशेष योगदान होता है। सूक्ष्‍म पोषक तत्‍वों का प्रबंधन जो कि समय-समय पर कराये गये मृदा परीक्षण पर आधारित हो अथवा फसल के लक्षणों पर आधारित हो, गन्‍ना उत्‍पादन बढ़ाता है। सामान्‍यत: गन्‍ना में लौह एवं जस्‍ता की कमी परिलक्षित होती है। इनकी कमी को पूरा करने हेतु फैरस सल्‍फेट/जिंक सल्‍फेट 0.5 से 2.0 प्रतिशत का घोल, फुहार के रूप में अथवा बोनी के समय फैरस सल्‍फेट 50 किलोग्राम/हेक्‍टेयर तथा जिंक सल्‍फेट 25 किलोग्राम/हेक्‍टेयर मृदा में मिलाया जा सकता है।
निंदाई-गुड़ाई: बुवाई के लगभग 4 माह तक खरपतवारों की रोकथाम आवश्‍यक है। इसके लिये 3-4 निंदाई आवश्‍यक है। रासायनिक नियंत्रण के लिये एट्राजिन 1 किलो सक्रिय तत्‍व/हेक्‍टेयर 600 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व छिड़काव करना चाहिए। बाद में उगे चौड़ी पत्‍ती खरपतवारों के लिये 2-4, डी. सोडियम साल्‍ट 0.5 किलोग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हेक्‍टेयर 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के समय खेत में नमीं होना आवश्‍यक है।
मिट्टी चढ़ाना: गन्‍ने को गिरने से बचाने के लिये रिजर की सहायता से मिट्टी चढ़ाना चाहिए। अक्‍टूबर-नवम्‍बर माह में बोई फसल में प्रथम मिट्टी मई माह में चढ़ाना चाहिये। कल्‍ले फूटने के पहले मिट्टी न चढ़ायें।
सिंचाई: गर्मी के दिनों में 8-10 दिनों के अंतर पर एवं सर्दी के दिनों में 15 दिन के अंतर से सिंचाई करें। सिंचाई सर्पाकार विधि से करें। सिंचाई की मात्रा कम करने के लिये गरेड़ों में गन्‍ने की सूखी पत्तियों की 10-15 सेमी. तह बिछायें। गर्मी में पानी की मात्रा कम होने पर एक गरेड़ छोड़कर सिंचाई देकर फसल बचावें। कम पानी उपलब्‍ध होने पर ड्रिप (टपका विधि) से सिंचाई करने से 40 प्रतिशत पानी की बचत होती है।
गर्मी के मौसम तक जब फसल 5-6 महीने तक की होती है स्‍प्रींकलर (फब्‍बारा) विधि से सिंचाई करके पानी की बचत की जा सकती है।
वर्षा के मौसम में खेत में उचित जल निकास का प्रबंध रखें। खेत में पानी के जमाव होने से गन्‍ने की बढ़वार एवं रस की गुणवत्‍ता प्रभावित होती है।
बंधाई: गन्‍ना न‍ गिरे इसके लिये गन्‍नों के झुण्‍डों को गन्‍ने की सूखी पत्तियों से बांधना चाहिये। यह कार्य अगस्‍त माह के अंत में या सितम्‍बर माह में करना चाहिए।
पौध सरंक्षण:
(अ) कीट: गन्‍ने की फसल को रोग व कीटों से बचाव के लिये पौध संरक्षण उपाय अपनायें।
1. अग्र तना छेदक के प्रकोप से बचाव हेतु सितम्‍बर-अक्‍टूबर में बोनी करें।
2. गन्‍ने के टुकड़ों को क्‍लोरपायरीफॉस 20 ई.सी. दवा के 0.1 प्रतिशत या मेलाथियान 50 ई.सी. दवा के 0.1 प्रतिशत घोल में 15 मिनट तक डुबोकर बीजोपचार करें।
3. अग्रतना छेदक के प्रकोप के नियंत्रण हेतु फोरेट 10 जी दानेदार या कार्बोफ्यूरान 3 जी दानेदार दवा को जड़ों के पास डालें। फोरेट दवा की मात्रा 1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्‍व/हेक्‍टेयर या कार्बोफ्यूरान 1 किलोग्राम तत्‍व/हेक्‍टेयर उपयोग करें।
4. पइरिल्‍ला एवं सफेद मक्‍खी नियंत्रण के लिये मेलाथियान 50 ई. सी. का 0.05 प्रतिशत का घोल या मोनोक्रोटोफास 36 एस.एल. दवा का 0.01 प्रतिशत घोल 600 लीटर प्रति हेक्‍टेयर के हिसाब से छिड़कें।
5. पायरिल्‍ला कीट के जैविक नियंत्रण हेतु जब 3-5 अंडे/शिशु/प्रौढ़ प्रति पत्‍ती हो तो एपीरिकेनिया के जीवित ककून 4000-5000 ककून या 4-5 लाख अंडे/हेक्‍टेयर की दर से छोड़ें।
6. शीर्ष तना छेदक का प्रकोप होने पर कार्बोफ्यरान 3 प्रतिशत दानेदार दवा का 1 किलोग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हेक्‍टेयर की दर से जड़ों के पास डालें।
(ब) रोग
1. उकठा रोग: यह एक प्रमुख बीमारी है जो लगभग पूरे प्रदेश में व्‍याप्‍त है। इस बीमारी के कारण गन्‍ने के बीज के साथ रहते हैं जिससे बीमारी एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान तक आसानी से पहुंचती है। इसके बीजाणु भूमि में फैल जाते हैं।
कारक: यह बीमारी फ्यूजेरियम मोनीलीफारमिस तथा एफ. आक्‍सीस्‍पोरम नामक फफूंद से होती है।
लक्षण: वर्षा ऋतु के उपरांत पत्तियॉं पीली पड़ने व मुरझाने लगती हैं तथा बाद में धीरे-धीरे सूखने लगती हैं। प्रभावित पौधों की बढ़वार कम हो जाती है। उग्र अवस्‍था में पौधों का सूखना तथा पत्तियों में पीलापन आना है। यदि ग्रसित गन्‍ना फाड़ कर देखें तो अंदर के उत्‍तक व गॉंठों के पास के भाव का उत्‍तक मटमैला रंग का दिखाई देता है। रोग ग्रसित गन्‍ना खोखला हो जाता है तथा गन्‍ने के अंदर फफूंद की बढ़वार देखी जा सकती है।
नियंत्रण: स्‍वस्‍थ व रोग रहित गन्‍ने का बीज प्रयोग करें। उकठा अवरोधी किस्‍मों को उपयोग में लाये जैसे सी.ओ.जे.एन. 86-171, सी.ओ.जे.एन. 866-600, सी.ओ. 94014, सी.ओ. 94015 तथा सी.ओ. 860321 गन्‍ना बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्‍डाजिम (0.1 प्रतिशत) दवा से बीजोपचार करें।
2. लाल सड़न: यह भी एक महत्‍वपूर्ण व अधिक हानि पहुंचाने वाली फफूंद बीमारी है। इस रोग का प्रभाव प्रदेश के उत्‍तर-पश्चिम भाग में ज्‍यादा पाया जाता है। यह बीमारी बीज जनक होती है। परंतु इसके पश्‍चात भूमि में तथा फसल अवशेष पर रहने लगता है। इस रोग का प्रकोप दोमट भूमि तथा अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्‍यादा होता है।
कारक: यह रोग को लेटोट्रइकम फाल्‍केटम नामक फफूंद के द्वारा होता है। इस रोग का प्रसारण रोग ग्रसित फसल की पेड़ी लेने व रोग ग्रसित बीज के उपयोग से होता है।
लक्षण: इस रोग का प्रथम लक्षण फसल पर वर्षा उपरांत रोगी पौधे की ऊपरी 2-3 पत्तियों के नीचे की पत्तियॉं किनारे से पीली पड़कर सूखने लगती हैं तथा नीचे की ओर झुक जाती हैं। पत्तियों की मध्‍य शिरा पर लाल कत्‍थई रंग के धब्‍बों का दिखना तथा बाद में राख के रंग का हो जाना। धब्‍बों के बीच में फफूंद के बीजाणुओं के समूह काले बिंदु के रूप में दिखाई देते हैं। रोगी गन्‍ना फाड़ कर देने पर अंदर का पूरा उत्‍तक चमकीला लाल रंग का दिखाई देता है तथा बीच-बीच में सफेद रंग की आड़ी पट्टी दिखाई देती है। रोग ग्रस्‍त भाग से सिरका या शराब जैसी दुर्गंध आती है। रोग की उग्र अवस्‍था में गठानों के निकट काले रंग के बिंदु दिखाई देते हैं।
नियंत्रण: लाल सड़न अवरोधी व सहनशील किस्‍में जैसे सी.ओ.जे.एन. 86-141, सी.ओ. 86032, सी.ओ. पंत 84212, सी.ओ. 52101 तथा सी.ओ. 1148 को उपयोग करें। बुआई हेतु गर्म हवा से उपचारित बीज का उपयोग करें। खेत से पूर्व फसल के अवशेष को नष्‍ट करें। खेत में पानी निकास की उचित व्‍यवस्‍था करें। एक ही खेत में एक ही किस्‍म का उपयोग लगातार न करें। बीज को फफूंदनाशक दवा कार्बेन्‍डाजिम (0.1 प्रतिशत) से उपचारित करें।
3. कंडवा रोग: यह रोग संपूर्ण मध्‍यप्रदेश में पाया जाता है। यह भी एक फफूंद जनित बीज जनक रोग है। इसका प्रभाव प्रमुख फसल की अपेक्षा पेड़ी की फसल पर अधिक होता है।
कारक: यह अस्टिलागो सिटामिनिया नामक फफूंद के द्वारा होता है। इसके विषाणु गन्‍ने के बीच में मौजूद रहते हैं तथा उसके द्वारा ही इनका प्रसारण एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान पर होता है। यह फफूंद अपना जीवन यापन रोग ग्रसित फसल के अवशेष पर भी करता है।
लक्षण: इस रोग का प्रभाव मई-जुलाई तथा अक्‍टूबर-दिसम्‍बर माह में अधिक होता है। रोगी पौधों के शिरे से काले रंग के चाबुक के आकार के समान संरचना निकलती है। काला चाबुक के आकार वाला भाग काले रंग के चूर्ण से भरा रहता है जो प्रारंभिक अवस्‍था में सफेद चमकदार झिल्‍ली से ढ़का रहता है। बाद में शुष्‍क मौसम में झिल्‍ली फट जाती है जिसके फलस्‍वरूप हजारों की संख्‍या में विषाणु वायु द्वारा स्‍वस्‍थ फसल पर गिरते हैं। रोग ग्रसित पौधों के नीचे से अनेक पतली शाखाएं निकलती हैं जिनकी पत्तियॉं छोटी, सकरी तथा गहरी हरी रहती हैं और इनके ऊपरी भाग से भी चाबुक के समान संरचना निकलती है। ग्रसित पौधे आमतौर पर पतले तथा लंब होते हैं।
नियंत्रण: कंडवा रोग अवरोधी व सहनशील जातियॉं जैसे सी.ओ.जे.एन. 86-141, सी.ओ.जे.एन. 86-572, सी.ओ.जे.एन. 86-600, सी.ओ. 94012, सी.ओ. 86032, सी.ओ. 88230 एवं सी.ओ. पंत 84212 का उपयोग करें। बुवाई पूर्व बीजोपचार कार्बेन्‍डाजिम फफूंदनाशक से 0.1 प्रतिशत की दर से करें। खेत में मौजूद पूर्व फसल के अवशेष को जलाकर नष्‍ट करें। रोग ग्रसित पौधों को खेत से निकालकर सावधानीपूर्वक जला दें। प्रमाणित एवं स्‍वस्‍थ बीज का प्रयोग करें।
4. पेड़ी का बौनापन: यह जीवाणु जनित रोग है इस रोग का प्रकोप कहीं-कहीं पेड़ी फसल पर भी दिखाई देता है।
कारक: यह रोग क्‍लेवीबैक्‍टर जाइली नामक जीवाणु से होता है।
लक्षण: रोग ग्रसित पौधों कमजोर तथा छोटा रह जाते हैं। प‍त्तियॉं सामान्‍यत: पीली तथा गन्‍ने के पोरों की लंबाई कम हो जाती है। गन्‍ने को फाड़कर देखने पर गठान के उत्‍तक नारंगी लाल या पीला नारंगी या भूरे रंग के दिखाई देते हैं।
नियंत्रण: गन्‍ने की कटाई करते समय स्‍वच्‍छ साफ धारदार चाकू का प्रयोग करें। ग्रसित फसल से बीज बुवाई हेतु न लें। फसल में पोषक तत्‍वों व पानी की कमी न होने दें। पेड़ी की फसल दो बार से ज्‍यादा न लें। बुवाई हेतु बीज को नम गर्म हवा से 4 घंटे उपचारित करें।
5. घसी या प्ररोह रोग (ग्रासी शूट): यह रोग मध्‍यप्रदेश के कई भागों में पाया जाता है। इस रोग का विपरीत प्रभाव गन्‍ने की उपज तथा शक्‍कर की मात्रा पर सीधा पड़ता है। रोग का प्रभाव जून-सितम्‍बर तक होता है।
कारक: यह रोग माइक्रोप्‍लाजमा द्वारा होता है।
लक्षण: गन्‍ने के तने घास के समान पतला तथा नीचे से एक साथ समूह में तनों का निकलना। रोगी गन्‍ना पतला पत्तियॉं हल्‍की पील से सफेद रंग की हो जाती हैं। ग्रसित गन्‍ने की गठानों की दूरी कम होती है तथा खड़े गन्‍ने से ऑंखों का अंकुरण होना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं।
नियंत्रण: बुवाई से पूर्व बीज को गर्म नम हवा से 4 घंटे उपचारित करें। गन्‍ना काटने का औजार स्‍वच्‍छ होना चाहिये। फसल में पोषक तत्‍वों की कमी न होने दें।
कटाई पश्‍चात प्रबंधन: गन्‍ना की खेती मुख्‍यत: शक्‍कर प्राप्‍त करने हेतु की जाती है। यदि गन्‍ने का उपयोग रस निकालने हेतु चौबिस घंटों के अंदर न किया जाये तो रस एव रस में शर्करा की मात्रा में कमी आ जाती है। इस क्षति को रोकने हेतु गन्‍ने को छाया में रखें एवं पानी का छिड़काव करें।
जड़ी फसल से भरपूर पैदावार: गन्‍ना उत्‍पादक यदि जड़ी फसल पर भी बीजू फसल की तरह ही ध्‍यान दें और बताये गये कम लागत वाले उपाय अपनायें, तो जड़ी से भरपूर पैदावार ले सकते हैं:-
समय पर गन्‍ने की कटाई: मुख्‍य फसल को समय पर काटने से पेड़ी की अधिक उपज ली जा सकती है। नवम्‍बर माह में काटे गये गन्‍ने की पेड़ी से अधिक उपज प्राप्‍त होती है। फरवरी माह में भी गन्‍ने की फसल काटने पर कल्‍ले अधिक निकलते हैं और पेड़ी की अच्‍छी उपज प्राप्‍त होती है। मार्च के बाद काटे गये गन्‍ने की पेड़ी अच्‍छी नहीं होती है।
जड़ी फसल दो बार से अधिक न लें: बीजू फसल के अलावा जड़ी फसल दो बार से अधिक न लें अन्‍यथा कीट और रोगों का प्रकोप बढ़ने से पैदावार कम हो जाती है।
गन्‍ने की कटाई सतह से करें: गन्‍ने की कटाई जमीन की सतह से करना चाहिए, जिससे कल्‍ले अधिक फूटेंगे और उपज अधिक होगी।
ठूंठ अवश्‍य काटें: यदि कटाई के बाद गन्‍ने के ठूंठ रह जायें तो उनकी कटाई अवश्‍य करें नहीं तो कल्‍ले कम फूटेंगे।
गरेड़े तोड़े: सिंचाई देने के बाद खेत में बतर आने पर गरेड़ो को बाजू से हल चलायें। इससे पुरानी जड़े टूटेंगी और नई जड़ें दिये गये खाद का पूरा उपयोग करेगी।
खाली जगह भरें: खेत में खाली स्‍थान का रहना ही कम पैदावार का मुख्‍य कारण है। अत: जो जगह एक फुट से अधिक खाली हो उसमें नये गन्‍ने के टुकड़े लगाकर सिंचाई करें।
पर्याप्‍त उर्वरक दें: जड़ी का उत्‍तम उत्‍पादन लेने के लिये मुख्‍य फसल की तरह 15-20 गाड़ी सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्‍टेयर डालें। बीजू फसल की तरह ही जड़ी फसल में भी 300 किलोग्राम नत्रजन (650 किलो ग्राम यूरिया), 80 किलोग्राम स्‍फुर (500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्‍फेट), 60 किलोग्राम पोटश (100 किलोग्राम म्‍यूरेट ऑफ पोटाश) प्रति हेक्‍टेयर की दर से देना चाहिए। स्‍फुर व पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा गरेड़ तोड़ते समय हल की सहायता से नाली में देना चाहिये। नत्रजन की बची हुई मात्रा आखिरी मिट्टी चढ़ाते समय दें। नाली में खाद देने के बाद रिजर या देशी हल में पोटली बांध कर हल्‍की मिट्टी चढ़ायें।
सूखी पत्‍ती बिछायें: प्राय: किसान भाई कटाई के बाद सूखी पत्‍ती खेत में जला देते हैं जो भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में सहायता होती है। उक्‍त सूखी प‍त्तियां जलायें नहीं उन्‍हें गरेड़ों में बिछा दें। इससे खेत से पानी का भाप बनकर उड़ने में कमी आती है। सूखी पत्तियॉं बिछाने के बाद 1.5 प्रतिशत क्‍लोरपायरीफॉस या 1.3 प्रतिशत लिंडेन का प्रति हेक्‍टेयर दवा का भुरकाव करें।
पौध संरक्षण अपनायें: कटे हुये ठूंठों पर कार्बेन्‍डाजिम 500 ग्राम मात्रा 250 लीटर पानी में घोलकर झारे की सहायता से ठूंठों के कटे हुये भाग पर छिड़कें।
उपयुक्‍त जातियॉं: जड़ी की अधिक पैदावार लेने हेतु उन्‍नत जातियॉं जैसे को. 7318, को. 6304 तथा को. 86033 का चुनाव करें।

ज्‍वार

ज्‍वार

ज्‍वार विश्‍व की एक मोटे अनाज वाली महत्‍वपूर्ण फसल है। वर्षा आधारित कृषि के लिये ज्‍वार सबसे उपयुक्‍त फसल है। ज्‍वार फसल का दोहरा लाभ मिलता है। मानव आहार के साथ-साथ पशु आहार के रूप में इसकी अच्‍छी खपत होती है। ज्‍वार की फसल कम वर्षा (450-500) में भी अच्‍छा उपज दे सकती है। एक ओर जहां ज्‍वार सूखे का सक्षमता से सामना कर सकती है वहीं कुछ समय के लिये भूमि में जलमग्‍नता को भी सहन कर सकती है। ज्‍वार का पौधा अन्‍य अनाज वाली फसलों की अपेक्षा कम प्रकाश संश्‍लेशन एवं प्रति इकाई समय में अधिक शुष्‍क पदार्थ का निर्माण करता है। ज्‍वार की पानी उपयोग करने की क्षमता भी अन्‍य अनाज वाली फसलों की तुलना में अधिक है। वर्तमान में मध्‍य प्रदेश में ज्‍वार की खेती लगभग 5 लाख हेक्‍टयर भूमि में की जा रही है। मध्‍य प्रदेश में ज्‍वार का क्षेत्रफल विगत वर्षों से कम होने के बावजूद राज्‍य की औसत उपज राष्‍ट्र की औसत उपज से 27 प्रतिशत अधिक है। मध्‍यप्रदेश में खरगोन, खण्‍डवा, बड़वानी, छिंदवाड़ा, बैतुल, राजगढ़ एवं गुना जिलों में मुख्‍यत: इसकी खेती की जाती है। इसके अलावा ज्‍वार के दाने का उपयोग उच्‍च गुणवत्‍ता वाला अल्‍कोहल बनाने में किया जा रहा हैं।
ज्‍वार की उपज कम होने के निम्‍न कारण है:-
1. स्‍थानीय जातियॉं का बोना
2. समय पर बुआई नहीं करना
3. असंतुलित उर्वरकों का प्रयोग
4. पौध संख्‍या अधिक होना
5. उचित पौध संरक्षण का अभाव
6. फसल की कार्यकीय परिपक्‍वता पर भुट्टे की कटाई न करना
भूमि का चुनाव: मटियार, दोमट या मध्‍यम गहरी भूमि, पर्याप्‍त जीवाश्‍म तथा भू‍मि का 6.0 से 8.0 पी.एच. सर्वाधिक उपयुक्‍त पाया गया है। खेत में पानी का निकास अच्‍छा होना चाहिये।
भूमि की तैयारी: गर्मी के समय खेत की गहरी जुताई भूमि उर्वरकता, खरपतवार, रोग एवं कीट नियंत्रण की दृष्टि से आवश्‍यक है। खेत को ट्रैक्‍टर से चलने वाले कल्‍टीवेटर या बैल जोड़ी से चलने वाले बखर से जुताई कर जमीन को अच्‍छी तरह भुरभुरी कर पाटा चलाकर बोनी हेतु तैयार करना चाहिए।
अनुसंशित किस्‍में: क्षेत्र के लिए उपयुक्‍त अनुशंसित किस्‍मों का चुनाव करें। क्षेत्र के लिए अनुमोदित किस्‍मों का बीज ही बोयें। जहां तक संभव हो प्रमाणित संस्‍थाओं के ही बीज का उपयोग करें या उन्‍नत किस्‍मों का स्‍वयं का बनाया हुआ बीज ही बोयें।
1. संकर किस्‍में: जिसका बीज दो अंत:प्रजात किस्‍मों के संकरण से बनाया जाता है और बोने के लिये प्रति वर्ष नया संकर बीज उपयोग में लाना आवश्‍यक है। संकर जातियॉं सी.एस.एच.14, सी.एस.एच.16, सी.एस.एच.17 तथा सी.एस.एच.18 किसानों के बोनी के लिये उपयुक्‍त हैं।
2. विपुल उत्‍पादन देने वाली किस्‍में: इन किस्‍मों का विकास दो अथवा अधिक किस्‍मों से संकरण के बाद ही पीढि़यों से चयनित श्रेष्‍ठ पौधों से किया जाता है। इन किस्‍मों के खेतों से किसान स्‍वयं सही लक्षण वाले 3000-4000 भूट्टो को (अथवा आवश्‍यकतानुसार) छांट कर रखें और अगले वर्ष बीज के रूप में उपयोग में लायें। प्रति वर्ष नया बीज खरीदना आवश्‍यक नहीं है।
मध्‍य प्रदेश में विपुल उत्‍पादन देने वाली जातियां जैसे जवाहर ज्‍वार 741, जवाहर ज्‍वार 938, जवाहर ज्‍वार 1022, जवाहर ज्‍वार 1041 तथा सी.एस.वी. 15 उपयुक्‍त हैं। वर्षा 2004 में ज्‍वार परियोजना, कृ‍षि महाविद्यालय, इंदौर से विकसित जवाहर ज्‍वार 1022 कम वर्षा एवं हल्‍की भूमि वाले क्षेत्र जैसे निमाड़ व झाबुआ जिले के लिये विशेष रूप से उपयुक्‍त है। उपरोक्‍त सभी जातियों के तने तथा पत्तियों दोनों की कार्यकीय परिपक्‍वता पर भी हरी बनी रहती हैं। इससे कडबी की गुणवत्‍ता अच्‍छी रहती है।
बीज की मात्रा: एक हेक्‍टेयर क्षेत्र के लिये 8 से 10 किलो ग्राम स्‍वस्‍थ एवं 70 से 75 प्रतिशत अंकूरण क्षमता वाला बीज पर्याप्‍त होता है।
बीजोपचार एवं कल्‍चर का उपयोग: फफूंद नाशक दवा थायरम 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। फफूंद नाशक दवा से उपचार के उपरांत एवं बोनी के पूर्व 10 ग्राम एजोस्प्रिलियम एवं पी.एस.बी. कल्‍चर का उपयोग प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से अच्‍छी तरह मिलाकर करें। कल्‍चर के उपयोग से ज्‍वार की उपज में आंशिक वृद्धि पाई गई है। उपचारित बीज को धूप से बचाकर रखें तथा बुवाई शीघ्रता से करें।
अधिक उत्‍पादन प्राप्‍त करने हेतु सही पौध संख्‍या: ज्‍वार की विपुल उत्‍पादन देने वाली जातियों तथा संकर जातियों में पौध संख्‍या 1,80,000 (एक लाख अस्‍सी हजार) प्रति हेक्‍टेयर रखने की अनुसंशा की जाती है। बीज को कतारों में 45 सेमी. दूरी पर बोयें। पौधों से पौधों का अंतर 12 सेमी. रखें। द्विउद्द्धेशीय (दाना एवं कड़बी) वाली नई किस्‍मों जैसे जवाहर ज्‍वार 1022, जवाहर ज्‍वार 1041 एवं सी.एच.एस. 18 की पौध संख्‍या दो लाख दस हजार प्रति हेक्‍टेयर रखना चाहिए। यह पौध संख्‍या फसल को कतारों से कतारों की दूरी 45 सेमी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. पर रखकर प्राप्‍त की जा सकती है।
अंकुरण के बाद पौधे जब 8 से 10 दिन के हो तब विरलन करते समय कतारों में 10 से 12 सेमी. की दूरी पर एक स्‍वस्‍थ पौधा रखें। शेष सभी पौधे निकाल दें। उसके पश्‍चात यदि हल्‍की वर्षा को रही हो तो इस समय जहां पौध नहीं हो वहां पर दूसरा पौधा रोप दें। सही जातियों का चुनाव सही समय पर बोनी, उचित समय पर पौध विरलन तथा सही पौध संख्‍या रखना कम लागत खर्च से अधिक उत्‍पादन प्राप्‍त करने की तकनीक है।
खाद एवं उर्वरक: ज्‍वार की जो फसल 55-60 क्विंटल दानों की तथा 100-125 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर कड़बी की उपज देती है। ज्‍वार भूमि से 130-150 किलोग्राम नत्रजन, 50-55 किलोग्राम स्‍फुर तथा 100-130 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्‍टेयर लेती है। ज्‍वार की फसल में एक किलोग्राम नत्रजन देने से नई उन्‍नत जातियों में 15 से 16 किलोग्राम दाना मिलता है। अच्‍छी उपज के लिये 80 किलो ग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम स्‍फुर तथा 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्‍टेयर देना चाहिये। बोनी के समय नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्‍फुर और पोटाश की पूरी मात्रा बीज के नीचे दें। नत्रजन की शेष मात्रा जब फसल 30-35 दिनों की हो जाये, यानि पौधे जब घुटनों की ऊंचाई के हो तब पौधों से लगभग 10-12 सेमी. की दूरी पर साईड ड्रेसिंग के रूप में देकर डोरा चलाकर भूमि में मिला दें। जहां गोबर की खाद अथवा कम्‍पोस्‍ट खाद उपलब्‍ध हो वहां 5 से 10 टन प्रति हेक्‍टेयर देना लाभदायक होता है तथा इससे ज्‍वार से अधिक उत्‍पादन प्राप्‍त होता है।
खरपतवार नियंत्रण: ज्‍वार फसल खरपतवार नियंत्रण हेतु कतारों के बीच व्‍हील हो या डोरा बोनी के 15-20 दिन बाद एवं 30-35 दिन बाद चलायें। इसके पश्‍चात कतारों के अंदर हाथों द्वारा निंदाई करें। संभव हो तो कुल्‍पे के दाते में रस्‍सी बांधकर पौधों पर मिट्टी चढ़ायें। रासायनिक नियंत्रण में एट्राजीन 0.5-1.0 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर सक्रिय तत्‍व अथवा एलाक्‍लोर 1.5 किलोग्राम स‍क्रिय तत्‍व को 500 लीटर पानी में मिलाकर बोनी के पश्‍चात एवं अंकुरण के पूर्व छिड़काव करें। अंगिया ग्रस्‍त खेत में ज्‍वार के अनुकूल मौसम होने पर भी भुट्टे में दाने नहीं भरते हैं। निंदानाशक दवाओं के छिड़काव से अंगिया की रोकथाम की जा सकती है। 2-4, डी का सोडियम साल्‍ट 2 किलोग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हेक्‍टेयर का छिड़काव करने से ज्‍वार में अंगिया की रोकथाम होती है। जब अंगिया की संख्‍या सीमित होती है तब अगिया को उखाड़कर नष्‍ट किया जा सकता है।
अंतरवर्तीय फसलें: इस पद्धति का मुख्‍य उद्धेश्‍य प्रति इकाई क्षेत्रा में एक ही समय में अधिक से अधिक उपज लेना। 30 सेमी. की दूरी पर ज्‍वार की दो कतार और 30 सेमी. पर सोयाबीन की दो कतार इस तरह एकातंतर प्रणाली में बोनी करने से ज्‍वार की पूरी उपज और सोयाबीन की लगभग 6 से 8 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर उपज मिलती है। बोते समय ज्‍वार का बीज 8 किलोग्राम और सोयाबीन का 40 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर प्रयोग करें। उर्वरक की मात्रा आधार रूप में 40 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम स्‍फुर एवं 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्‍टेयर दें। शेष 40 किलोग्राम नत्रजन की मात्रा जब फसल 30-35 दिन की हो जाये तब केवल ज्‍वार की फसल में दें। इस प्रकार उर्वरक की कुल मात्रा 80 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम स्‍फुर एवं 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्‍टेयर प्रयोग करें।
45 सेमी. की दूरी पर ज्‍वार की 4 कतार और 45 सेमी. की दूरी पर अरहर की दो कतारें अथवा ज्‍वार की दो कतार एवं अरहर की एक कतार, इस तरह एकांतर प्रणाली से संपूर्ण खेत की बोनी करें। ज्‍वार की पैदावार में आंशिक कमी आयेगी परंतु अरहर की उपज 6-8 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर प्राप्‍त होगी। बीते समय ज्‍वार का बीज 8 किलोग्राम एवं अरहर का बीज 7.5 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर उपयोग करें। अर्तरवर्तीय फसल प्रणाली में नई जातियॉं संकर 14, संकर 16, संकर 17, संकर 18, ज्‍वार 1022, जवाहर ज्‍वार 1041 के साथ अधिक प्रभावी होती हैं।
पौध संरक्षण:
(अ) कीट: ज्‍वार की फसल में अनेक प्रकार के कीट पाए जाते हैं इनमें प्रमुख है तना छेदक मक्‍खी, तना छेदक इल्‍ली और भुट्टों के कीट मुख्‍यत- मिज मक्‍खी अधिक हानि पहुंचाती है।
1. तना छेदक मक्‍खी: यह कीट वयस्‍क घरेलू मक्‍खी की तुलना में आकार में छोटी होती है। इसकी मादा पत्‍तों के नीचे सफेद अंडे देती हैं। इन अंडे से 2 से 3 दिनों में इल्लि‍‍यां निकलकर पत्‍तों के पोंगलों से होते हुए तनों के अंदर प्रवेश करती है और तनों के बढ़ने वाले भाग को नष्‍ट करती हैं। ऐसे पौधों में भुट्टे नहीं बन पाते हैं।
नियंत्रण: यदि बोनी वर्षा के आगमन के पूर्व अथवा वर्षा के आरंभ के एक सप्‍ताह में कर ली जाये तो इस कीट से हानि कम होती है। बीजोत्‍पादन क्षेत्र में बोनी के समय बीज के नीचे फोरेट 10 प्रतिशत अथवा कार्बोफयुरान 3 प्रतिशत दानेदार कीट नाशक 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर के हिसाब से दें। देरी से बोनी होने पर सवाया बीज बोयें।
2. तना छेदक इल्‍ली: इस कीट की वयस्‍क मादा मक्‍खी पत्‍तों की निचली सतह पर 10 से लेकर 80 के गुच्‍छों में अंडे देती हैं जिससे 4 से 5 दिनों में इल्लियां निकलकर पत्‍तों के पोंगलों में प्रवेश करती हैं। तनों के अंदर में सुरंग बनाती हैं और अंतत: नाड़ा बनाती हैं। इस कीट की पहचान पत्‍तों में बने छेदों से की जा सकती है जो इल्लियां पोंगलों में प्रवेश के समय बनाती हैं।
नियंत्रण: पौधे जब 25-35 दिनों की अवस्‍था के हो तब पत्‍तों के पोंगलों में कार्बोफ्युरान 3 प्रतिशत दानेदार कीट नाशक के 5 से 6 दाने प्रति पौधे की मात्रा में डालें। लगभग 8 से 10 किलोग्राम कीटनाशक एक हेक्‍टेयर के लिये लगता है। दानेदार कीट नाशक महंगे है अत: इस कीट की संतोषजनक रोकथाम इंडोसल्‍फान 4 प्रतिशत अथवा क्‍यूनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण का देना पोंगलों में भुरकाव द्वारा देना संभव है। प्रति हेक्‍टेयर 8 से 19 किलोग्राम चूर्ण पर्याप्‍त होगा। यदि तना छेदक इल्‍ली का नियंत्रण फसल की प्रारंभिक अवस्‍था में न किया जाये तो भुट्टो के डंठलों में इल्लियां प्रवेश कर सुरंग बनाती हैं। परिणामस्‍वरूप भुट्टो में बढ़ते हुये दानों को पर्याप्‍त मात्रा में जल तथा पोषक तत्‍व उपलब्‍ध नहीं हो पाता है। ऐसे भुट्टो में दाने आकार में छोटे रह जाते हैं अथवा अनेक बार दाने नहीं बन पाते हैं।
3. भुट्टो के कीट: मीज मक्‍खी कीट का प्रकोप महाराष्‍ट्र से लगे जिलों में अधिक देखा जाता है। सामान्‍यत: तापमान जब गिरने लगता है तब कीट दिखाई देता है। इस कीट की वयस्‍क मादा मक्‍खी नारंगी-लाल रंग की होती है, जो फूलों के अंदर अंडे देती है। अंडों से 2 से 3 दिन में इल्लियां निकलकर फूलों के अंडकोषों को खाकर नष्‍ट करती है। परिणामस्‍वरूप भुट्टो में कई जगह दाने नहीं बन पाते। अन्‍य कीटों की इल्लियां भुट्टो में जाले बनाती हैं अथवा बढ़ते हुये दाने खाकर नष्‍ट करती हैं। कुछ रस चूसक कीट दानों से रस चूस लेते हैं।
नियंत्रण: खेत में जब 90 प्रतिशत पौधों में भुट्टे पोटो से बाहर निकल आवें तब भुट्टो पर इण्‍डोसल्‍फान 35 ई;सी; (1 लीटर प्रति हेक्‍टेयर) अथवा मेलाथियान 50 ई.सी. (1 लीटर प्रति हेक्‍टेयर) तरल कीट नाशक को 500-600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। आवश्‍यकता होने पर 10-15 दिनों बाद छिड़काव दोहराएं। यदि तरल कीटनाशक उपलब्‍ध न हो तो इण्‍डोसल्‍फान 4 प्रतिशत अथवा मेलाथियान 5 प्रतिशत चूर्ण का भुरकाव 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर की दर से उपयोग करें।
(ब) रोग: ज्‍वार की देसी किस्‍मों के पत्‍तों पर अनेक प्रकार के चित्तिदार पर्ण रोग देखे जा सकते हैं परंतु संकर किस्‍मों और नई उन्‍नत किस्‍मों के पत्‍तों पर पर्ण चित्‍ती रोग कम दिखाई देते हैं क्‍योंकि उनमें इन रोगों के लिए प्रतिरोधिक क्षमता या आनुवाशिक गुण है। कंडवा रोग भी नई किस्‍मों में नहीं दिखाई देता है।
पौध सड़न अथवा कंडवा का नियंत्रण बीज को कवकनाशी दवा से उपचारित करने से संभव है। चूंकि ज्‍वार की नई किस्‍में लगभग 95 से 110 दिनों में पकती है, दाने पकने की अवस्‍था में वर्षा होने से दानों पर काली अथवा गुलाबी रंग की फफूंद की बढ़वार दिखाई देती है। दाने पोचे हो जाते हैं, उनकी अंकुरण क्षता कम हो जाती है और मानव आहार के लिये ऐसे दाने उपयुक्‍त नहीं होते हैं।
नियंत्रण: इस रोग के सफल नियंत्रण के लिये यदि ज्‍वार फूलने के समय वर्षा होने से वातावरण में अधिक नमी हो तो केप्‍टान (0.3 प्रतिशत) और डाईथेन-एम (0.3 प्रतिशत) के मिश्रण के घोल का छिड़काव तीन बार भुट्टो पर निम्‍नानुसार करना चाहिए।
1. फूल अवस्‍था के समय
2. दानों में दूध की अवस्‍था के समय और
3. दाने पकने की अवस्‍था के समय
कटाई: फसल की कटाई कार्यकीय परिपक्‍वता पर करनी चाहिए। हर किस्‍म में भुट्टों के पकने का समय अलग-अलग होता है। ज्‍वार के पौधों की कटाई करके ढेर लगा देते है। बाद में पौध से भुट्टो को अलग कर लेते हैं तथा कड़बी को सुखाकर अलग ढेर लगा देते हैं। यह बाद में जानवरों को खिलाने में काम आता है। दानों को सुखाकर जब नमी 10 से 12 प्रतिशत हो तब भंडारण करना चाहिए।
अधिक उत्‍पादन लेने के लिए प्रमुख बातें:-
1. सही समय पर बोनी करें।
2. सही किस्‍म का चुनाव करें।
3. खेत में जुताई अच्‍छी तरह करें।
4. उपचारित बीज की बोनी करें।
5. पौधों की संख्‍या प्रति इकाई उपयुक्‍त रखें।
6. खाद व उर्वरक का उपयोग संतुलित मात्रा में निर्धारित समय पर करें।
7. खेत में पानी का निकास अच्‍छा रखें।
8. गभोट अवस्‍था में यदि आवश्‍यकता हो तो सिंचाई करें।
9. पौध संरक्षण उपाय समय पर अपनायें।

मक्‍का

मक्‍का

मध्‍यप्रदेश में मक्‍का खरीफ के मौसम में बोई जाने वाली एक प्रमुख फसल है। मध्‍यप्रदेश के विभिन्‍न जिले जिनमें मक्‍का की खेती बहुतायत से की जाती है, उनमें छिंदवाड़ा, मंदसौर, धार, झाबुआ, रतलाम, सरगुजा, खरगौन, गुना, मंडला, शिवपुरी, शाजापुर एवं राजगढ़ जिले प्रमुख हैं। राज्‍य में क्षेत्र एवं उत्‍पादन की दृष्टि से छिंदवाड़ा अग्रणी जिला है।
भारत वर्ष के अनेक राज्‍य जिनमें मक्‍का की फसल प्रमुख रूप से ली जाती है उनमें उत्‍तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, मध्‍यप्रदेश इत्‍यादि प्रमुख हैं। भारत में मक्‍का की खेती 8.5 लाख हेक्‍टेयर में होती है और उत्‍पादन 14 लाख टन प्रति वर्ष होती है। वर्ष 2000 के आंकड़े के अनुसार कुल मक्‍का उत्‍पादन में मध्‍यप्रदेश का योगदान अन्‍य प्रदेशों की तुलना में चौथे स्‍थान पर है।
इसी तरह मध्‍यप्रदेश में भी अन्‍य जिलों की अपेक्षा छिंदवाड़ा जिले का योगदान मक्‍का उत्‍पादन में अधिक है। अकेले छिंदवाड़ा जिले का क्षेत्रफल पूरे मध्‍यप्रदेश के मक्‍का क्षेत्र का 10 प्रतिशत है। सतपुड़ा अंचल की जलवायु मक्‍का की खेती के अनुकूल है। अत: उन्‍नत जातियों की जानकारी व उनका चयन प्रदेश में मक्‍का का उत्‍पादन बढ़ाने की दिशा में एक सार्थक प्रयास होगा।
मध्‍यप्रदेश में मक्‍का के लिए जलवायु अनुकूलता, इसकी उपयोगिता एवं उत्‍पादन क्षमता के कारण इस फसल की लोकप्रियता बहुत अधिक है। वर्ष 1969-70 में इसका क्षेत्र मात्र 6.1 लाख हेक्‍टेयर था। वह बढ़कर वर्ष 2000-2001 में 17 लाख हेक्‍टेयर हो गया। इसी प्रकार उत्‍पादन 5.1 लाख टन से बढ्कर 1200 लाख टन हो गया और औसत उत्‍पादकता 551 क्विं./हेक्‍टेयर से बढ्कर 1468 क्विं./हेक्‍टेयर हो गई है।
मक्‍का का लगभग 55 प्रतिशत मात्रा भोजन के रूप में उपयोग किया जा रहा है। लगभग 14 प्रतिशत पशुआहार, 18 प्रतिशत मुर्गीदाना, 12 प्रतिशत स्‍टार्च में, 1.2 प्रतिशत बीज के रूप में उपयोग होता है। मक्‍का के एक परिपक्‍व बीज में लगभग 65-75 प्रतिशत स्‍टार्च, 10-11 प्रतिशत प्रोटीन एवं 5 प्रतिशत तेल होता है। मक्‍का के दाने में 30 प्रतिशत तेल एवं 18 प्रतिशत प्रोटीन होता है। सफेद एंडोस्‍पर्म में लगभग 90 प्रतिशत स्‍टार्च पाया जाता है।
मक्‍का की फसल की शुरूआत के दिनों में भूमि में पर्याप्‍त नमी की आवश्‍यकता होती है। साथ ही पर्याप्‍त सूर्य के प्रकाश की भी आवश्‍यकता होती है। भूमि में पर्याप्‍त नमी की कमी हो जाने पर इसकी बढ़वार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जुलाई से अग्स्‍त माह की वर्षा का मक्‍का की फसल पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
विगत वर्षों में सोयाबीन फसल में कुछ विशेष कारकों से उत्‍पादन में कमी आने के कारण कृषकों का रूझान मक्‍का फसल की ओर बढ़ा है। मक्‍का फसल में अन्‍य खरीफ फसलों की तुलना में कुछ विशेषताएं है जैसे:
1. मक्‍का की उत्‍पादकता वर्षा पर आधारित खेतों में भी अत्‍यधिक है।
2. अन्‍तरण अधिक होने से खाली जगह में अन्‍तरवर्तीय फसल बोनस के रूप में लेना संभव है।
3. अन्‍तरण अधिक होने से खरपतवार नियंत्रण का खर्च सीमित होता है।
4. प्रति हेक्‍टेयर बीज लागत व्‍यय बहुत कम।
5. अनाज के साथ-साथ चारे की प्राप्ति।
6. आवश्‍यकता पड़ने पर हरे चारे (35 से 60 दिन) के रूप में उपयोग।
मक्‍का फसल की मुख्‍य आवश्‍यकताएं:
1. खेत में कभी भी पानी भरा न हो।
2. क्रांतिक अवस्‍थाओं में भूमि में नमी होना अति आवश्‍यक है।
3. विपुल उत्‍पादन के लिए आवश्‍यक उर्वरक देना जरूरी है।
मौसम: मक्‍का उत्‍पादन के लिए 26-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान उपयुक्‍त है किंतु विषम परिस्थितियों में 15 से 40 डिग्री सें.ग्रे. के तापामन में उत्‍पादन लिया जा सकता है। मैदानी क्षेत्र से लेकर पहाड़ी क्षेत्र में जहां ऊंचाई 2700 मीटर तक मक्‍का उगाई जा सकती है।
भूमि चुनाव: मध्‍यम से भारी भूमि जिसमें जल निकास अच्‍छा हो, सबसे उपयुक्‍त होती है। लवणीय, क्षारीय भूमि एवं निचली भूमि जहां पानी का भराव होता हो, वहां मक्‍का नहीं लगाना उचित होगा।
भूमि की तैयारी: भूमि की तैयारी के लिए दो बार हल, दो बार बखर चलाकर मिट्टी भुरभुरी कर पाटा से समतल करके बोनी हेतु खेत तैयार करें। जहां बुवाई के समय या पौध अवस्‍था में खेत में पानी भरता हो वहां जल निकास हेतु नालियॉं बनायें जो कि जमीन के प्रकार, ढाल के आधार पर 5 से 10 मीटर के अंतर से निकालना चाहिए जिससे वर्षा का अतिरिक्‍त पानी शीघ्रता से बाहर निकले। निचले भूमि में या जहां पानी भरने की दशा वाली भूमि में कूड़-नाली बनाकर कूड़ के बाजू में बुवाई करना लाभप्रद होता है। सामान्‍य रूप से मक्‍का काफी अंतर पर लगाया जाता है। इन स्थिति में गोबर खाद, कम्‍पोस्‍ट खाद या केचुआ खाद का प्रयोग कतारों में करना लाभप्रद होगा। इन खादों का प्रयोग कतार में करने में भूमि में नमी की कम उपलब्‍धता की दशा में पानी सोखकर रखने की क्षमता को बढ़ाती है तथा अधिक पानी के भराव की दशा में जल निकास हेतु सहायता मिलती है। इन खादों/उर्वरकों की उपलब्‍धता की कमी के कारण छिड़काव बिखेरना नहीं चाहिए, इसलिए जहां तक संभव हो कतार में ही दें।
उन्‍नत जातियॉं: क्षेत्र की उपयुक्‍कता, भूमि की दशा, सिंचाई की व्‍यवस्‍था, खाद की मात्रा देने की क्षमता, फसल चक्र में अवधि के अनुसार, साथ ही विभिन्‍न उद्वेश्‍यों के लिए उन्‍नत जातियों का चयन करना जरूरी होता है।
संकुलित किस्‍में: इन्‍हें कम्‍पोजिट किस्‍मों के नाम से जाना जाता है। इन किस्‍मों के बीज को किसान दो-तीन वर्षों तक लगातार उपयोग कर सकता है।
संकर किस्‍में: इन किस्‍मों को हायब्रिड के नाम से जाना जाता है। किसान को संकर किंस्‍मों का उपयोग करते समय इस बात का अवश्‍य ध्‍यान रखना चाहिए कि प्रत्‍येक वर्ष बीज नया ही लेना है।
बीज की मात्रा: बोनी हेतु बीज की मात्रा 16 से 20 किग्रा. प्रति हेक्‍टेयर उपयोग करें। फसल अवधि के आधार पर बीज की मात्रा कम और अधिक हो सकती है।
बुवाई का समय: वर्षा आधारित क्षेत्रों में मानसून के प्रारंभ होते ही मक्‍का की बुवाई करें। जहां सिंचाई उपलब्‍ध हो तो मानसून आने के 20 दिन पूर्व भी बुवाई की जा सकती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पहली वर्षा के तुरंत बाद शीघ्रता से बुवाई करें।
बुवाई पद्धति: कतार में ही बुवाई करें। बीज छिड़ककर न बोयें। सबसे अच्‍छा होगा कि हाथ से टुपाई करें। बुवाई भूमि ढाल से आड़ी दिशा में करें। टुपाई करने पर समतल खेत में सरता से खाद की बुवाई करें एवं कतार में 20 सेमी. की अंतर पर 2 दाने थोड़ी दूर पर डालें, बाद में 15 दिन पर पौध विरलन कार्य करें। मक्‍का बीज की बुवाई के लिए गहराई 3 से 5 सेमी. होनी चाहिए।
बीज उपचार: बीज उपचार हेतु 2 ग्राम थाइरम एवं 1 ग्राम कार्बन्‍डाजिम प्रति किलो ग्राम बीज हेतु प्रयोग करें।
बीज अंकुरण: मक्‍का फसल के बीज शीघ्रता से अपनी अंकुरण क्षमता खो देते हैं। साथ ही भंडारण में कीट की समस्‍या अधिक आती है। अत: यह जरूरी है कि बुवाई पूर्व बीज की अंकुरण क्षमता जरूर ज्ञात करें।
पौध विरलन: यह क्रिया मक्‍का फसल में अति आवश्‍यक है क्‍योंकि 60 से 70 प्रतिशत किसान भाइयों के खेत में वांछित पौध संख्‍या न होने से उत्‍पादन में कमी आती है। इसलिए बुवाई के समय कतार का अंतर तो निश्चित रहता है परंतु पौध से पौध के अंतर बीज टुपाई में या बुवाई में कम अंतर पर डालते हैं। बाद में 15 से 20 दिन पर प्रथम गुड़ाई के तुरंत बाद पौध विरलन का कार्य किया जाता है। इससे पौधे 20 से 22 सेमी. के अंतर पर बनाये रखते हुए कमजोर पौधों को खेत से निकाल दिया जाता है। साथ ही जहां जगह खाली हो वहां स्‍वस्‍थ पौधों को रोपित किया जाता है। आवश्‍यक है कि इस क्रिया के समय हल्‍की वर्षा का मौसम होना चाहिए।
कम्‍पोस्‍ट खाद: उपलब्‍ध सड़ी हुई गोबर की खाद, कम्‍पोस्‍ट या केंचुआ द्वारा बनी खाद का प्रयोग करना जरूरी है क्‍योंकि मक्‍का फसल खेत में पानी का भराव एवं पानी की कमी इन दोनों दशाओं के प्रति अति संवेदनशील है। खाद बुवाई के समय कतारों में दें, जिससे फसल को सीधा फायदा होगा। अनुमानत: 8 से 10 टन खाद प्रति हेक्‍टेयर देना चाहिए।
नत्रजन की एक-तिहाई मात्रा एवं स्‍फुर तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई करते समय सरते से कतार में दें। शेष दो-तिहाई से क्रमश: एक-तिहाई नत्रजन 25-30 दिनों पर एवं 45-50 दिनों पर खड़ी मक्‍का फसल में दे। खेत में पानी भरने की दशा में एवं निंदाई-गुड़ाई में देरी होने पर नत्रजन 20 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर निश्चित रूप से दें। खड़ी फसल में नत्रजन का प्रयोग निंदाई उपरांत ही करें।
रासायनिक खाद की संतुलित मात्रा मिट्टी परीक्षण परिणाम के आधार पर देना अधिक लाभप्रद होगा।
सूक्ष्‍म तत्‍व: जिेक सल्‍फेट 20 किग्रा./हेक्‍टेयर बुवाई के समय देना चाहिए।
जैविक खाद: कम खर्च में अधिक फायदे व आर्थिक उद्देश्‍य के मद्देनजर रखते हुए एजेटोबेक्‍टर, एजोस्‍प्रेलियम एवं पी.एस.बी. जैव उर्वरकों का प्रयोग करें। जैविक खाद तथा रासायनिक खाद को यथा संभव कतारों में दें।
अंतर सस्‍य क्रियाएँ: खेत को 35 से 40 दिन तक नींदा रहित रखना जरूरी है। अत: फसल अंकुरण के 15-20 एवं 25-30 दिन पर खेत में डोरा चलाना जरूरी है। इसके बाद मिट्टी चढ़ाने का कार्य डोरा में फट्टी लगाकर (सारपाटी) खेत में चलाने से कम लागत में मिट्टी चढ़ाने का कार्य किया जा सकता है। गुड़ाई के तुरंत बाद निंदाई करने से मिट्टी से दबे पौधे निकालना एवं खेत नींदा रहित करने में कम खर्च आता है। अत: गुड़ाई के बाद निंदाई अवश्‍य करें। नींदा जड़ से निकालते समय उसे जल्‍दी में तोड़े या काटे नहीं अन्‍यथा खरपतवार शीघ्रता से बढ्कर फसल से प्रतिस्‍पर्धा करेंगे। संभव होने पर निंदाई किया गया कचरा खेत से बाहर मेंड़ पर निकाले या केचुआ, नाडेप, कम्‍पोस्‍ट खाद बनाने में इसका प्रयोग करें।
रासायनिक नींदा नियंत्रण: मक्‍का फसल में एट्राजीन 1 किग्रा. प्रति हेक्‍टेयर बुवाई के बाद परंतु उगने के पूर्व उपयोग करें। अंतरवर्ती (मक्‍का+दलहन/तिलहन) फसल व्‍यवस्‍था में पेंडीमिथिलिन 1.5 किग्रा. प्रति हेक्‍टेयर बुवाई के बाद परंतु उगने के पूर्व रसायन का प्रयोग करें। मक्‍का फसल में चौड़ी पत्‍ती वाले खरपतवारों की अधिकता होने पर 30-35 दिन पर 2,4-डी का 1.0 किग्रा. प्रति हेक्‍टेयर उगे हुए खरपतवारों पर छिड़काव कर नियंत्रण किया जा सकता है।
सिंचाई एवं जल निकास: वर्षा आधारित क्षेत्रों में खेतों में नमी की कमी होने पर सिंचाई की जानी चाहिए। विशेष रूप से उन क्रांतिक अवस्‍थाओं पर जहां फसल अधिक संवदेनशील होती है।
इन अवस्‍थाओं में भूमि में नमी की कमी होने पर फसल उत्‍पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसी समय खेत में पानी की अधिकता एवं पानी का भराव होने पर फसल को काफी नुकसान होता है। पौध की अवस्‍था पानी भरने के लिए एवं पुष्‍पन अवस्‍था भूमि में नमी की कमी होने के प्रति अति संवदेनशील है।
अंतरवर्तीय फसलें: अंतरवर्तीय फसलों में 2:2, 2:4, 2:6 अनुपात में फसल लगाई जा सकती है। परंतु 1:1 सबसे उपयुक्‍त पाया गया है क्‍योंकि इस पद्धति में मक्‍का की 100 प्रतिशत पौध संख्‍या होती है एवं अंतरवर्तीय फसल की 50 प्रतिशत उपज बोनस के रूप में प्राप्‍त होती है।
खरीफ मौसम में:
मक्‍का : दलहन में उड़द, बरबटी, ग्‍वार एवं मूंग
मक्‍का : तिलहन में सोयाबीन एवं तिल
मक्‍का : सब्‍जी में सेम, भिंडी, हरी धनियॉं
मक्‍का : चारा (पौष्टिक) ग्‍वार, बरबटी एवं मक्‍का
मक्‍का : हरी खाद, ढेंचा, सन
रबी मौसम में:
मक्‍का: मटर, मेथी, पालक, धनियॉं एवं मूली
1 कतार : हरी खाद, ढेंचा, सन
जायद में:
मक्‍का : मूंग, हरी धनियॉं एवं पालक
पौध संरक्षण
(अ) रोग
1. पर्ण अंगमारी
(अ) मैडिस पर्ण अंगमारी: अंकुरण के 4-5 सप्‍ताह के बाद इस रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। प्रारंभिक अवस्‍था में छोटे गोलाकार/अंडाकार धब्‍बे भूरे कत्‍थई रंग के अधिक संख्‍या में बनते हैं जिनके किनारे भूरे बैंगनी रंग के होते हैं। मौसम की अनुकूलता से ये धब्‍बे बड़े होकर आपस में मिल जाते हैं। जिससे पत्तियों पर धारियॉं बन जाती हैं। ग्रसित पौधे की बढ़वार रूक जाती है। यह मृदा जनित रोग है जो हेलमेन्‍योपोरियम मेडिस नामक फफूंद द्वारा फैलता है। इस रोग के तीव्र प्रकोप की अवस्‍था में 90 प्रतिशत तक हानि हो जाती है।
(ब) टर्सिकम पर्ण अंगमारी: अंकुरण के 4-5 सप्‍ताह बाद इस रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। सर्वप्रथम इस रोग के लक्षण नीचे की प‍त्तियों पर दिखते हैं। लम्‍ब वृत्‍ताकार या नाव के आकार के धूसर हरे रंग के 15 सेमी. लम्‍बे व 3-4 सेमी. चौड़े होते हैं। तीव्र प्रकोप की अव‍स्‍था में पत्तियां पूरी तरह से सूख जाती हैं एवं भुट्टे की संख्‍या एवं वजन में कमी आ जाती है। यह मृदा जनित रोग है जो हेलमेन्‍योस्‍पोरियम टर्सिकम नामक फफूंद द्वारा फैलता है। इस रोग के प्रकोप से उपज में 30 प्रतिशत तक कमी आ जाती है।
नियंत्रण:
1. पुराने पौधों के अवशेषों को जलाकर नष्‍ट करें।
2. रोग सहनशील जातियां- गंगा-21, एच-216, जय किसान इत्‍यादि लगायें।
3. बोने के पूर्व बीजों को थायरम फफूंदनाशक दवा 3 ग्राम/किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
4. खड़ी फसल पर प्रारंभिक लक्षण दिखते ही डायथेन जेड-78 या डायथेन एम-45 दवा का 3 ग्राम/लीटर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें। रोग की तीव्रता को देखते हुए 15 दिनों के अंतराल से छिड़काव दुहरायें।
5. ताम्रयुक्‍त फफूंदनाशक दवा जैसे ब्लिटाक्‍स- 50 या फाइटोलान दवा 3 ग्राम/लीटर की दर से छिड़काव करें।
2. भूरी चित्‍ती: पत्तियों, पर्णछेदक, तने एवं भुट्टे के बाहरी छिलके पर हल्‍के पीले रंग के 1-5 मि.मी. व्‍यास के गोलाकार/अंडाकार धब्‍बे बनते जाते हैं। तीव्र प्रकोप की अवस्‍था में धब्‍बे अधिक संख्‍या में बनते हैं और आपस में मिल जाते है व भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते हैं और आपस में मिल जाते हैं। रोग ग्रस्‍त भाग जंग लगा सा दिखता है। तीव्र प्रकोप की अवस्‍था में पत्तियां विकसित हुए बिना ही सूख जाती हैं तथा धब्‍बे भुट्टों पर बन जाते हैंं। अत्‍यधिक प्रकोप से उपज में 25 प्रतिशत तक हानि हो जाती है। यह बीज जनित रोग है जो फाइसोर्मा मेडिस नामक फफूंद से होता है।
नियंत्रण:
1. खेतों को खरपतवारों से मुक्‍त रखें।
2. फसल चक्र अपनाएं।
3. बोनी के पूर्व बीजों को थायरम या डाययेन एम-45 फफूंदनाशक दवा 3 ग्राम/किलो ग्राम की दर से उपचारित करें।
4. रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही ताम्रयुक्‍त फफूंदनाशक दवा, फाइटोलान या ब्लिटाक्‍स-50 का 3 ग्राम/लीटर के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करें। रोग की तीव्रता को देखते हुए 10-15 दिनों के अंतराल से छिड़काव दुहरायें।
3. मृदरोमिल आसिता (डाउनी मिल्‍डयू): प्रारंभ में निचली पत्तियों पर लम्‍बवत 3 मि.मी. चौड़ी पीले रंग की धारियां समानान्‍तर रूप में बनती है। बाद में धारियां भूरे रंग में परिवर्तित होती है व इन धारियों पर सफेद रंग की कवर वृद्धि दिखाई देती हैं। कुछ समय पश्‍चात ऊपर की पत्तियों पर भी दिखाई देने लगते हैं। पौधे की प्रारंभिक अवस्‍था में रोग की तीव्रता अधिक हो जाये तो पौधे समय से पूर्व ही मर जाते है। इस रोग से 20-60 प्र‍तिशत तक हानि होती है। यह बीज एवं मृदा जनित रोग है जो स्‍कलेरोस्‍पोरा टैसीनामक फफूंद द्वारा होता है।
नियंत्रण:
1. फसल अवशेषों को इकट्ठा कर जलायें।
2. फसल चक्र अपनायें।
3. खेतों में जल निकासी की उचित व्‍यवस्‍था कर समय-समय पर खेत से पानी की निकासी करें।
4. रोग रोधी किस्‍में गंगा-2, तरूण, जवाहर, किसान आदि लगाये।
5. खड़ी फसल में रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही ताम्रयुक्‍त फफूंदनाशक जैसे फाइटोलान या क्लिटाक्‍स-50 का 3 ग्राम/लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करें। रोग की तीव्रता देखते हुए 10-15 दिनों के अंतराल से छिड़काव दुहराये।
(ब) कीट
1. सफेद लट: सफेद रंग की अंगूठी के समान मोटी मांसल इल्‍ली जिसका सिर भूरे रंग का होता है, पौधे की जड़ों को खाकर नुकसान पहुंचाती है। ये इल्लियां नमीयुक्‍त जमीन में 5-10 सेमी. तथा सूखी जमीन में 30-60 सेमी. गहराई तक पाई जाती हैं। क्षतिग्रस्‍त पौधे मुरझा कर सूख जाते हैं जिसे आसानी से खीचकर भूमि में निकाला जा सकता है।
नियंत्रण: फोरेट 10 जी. दवा की 10 किलो ग्राम/हेक्‍टेयर मात्रा बोनी से पूर्व खेतों में प्रयोग करें।
2. तना छेदक मक्‍खी: यह गहरे भूरे रंग की मक्‍खी घरेलू मक्‍खी से छोटी होती है। पत्तियों की निचली सतह पर दिये अंडों से 2 दिन बाद छोटे-छोटे हल्‍के सफेद रंग की गिहारे निकलती हैं। गिहारे रेंगकर पर्णच्‍छेद में पहुंच जाते हैं तथा उसे भेदकर तने में प्रवेश कर जाते हैं। पौधे का मुख्‍य प्ररोह कट जाने से मृत केन्‍द्र (डेडहार्ट) बन जाता है तथा पौधा मर जाता है। प्रकोपित पौधे में बाजू से कल्‍ले निकल जाते हैं। प्रकोप से लगभग 20 प्रतिशत तक उपज में कमी आंकी गई है। इस कीट का प्रकोप पौधे की तीन पत्‍ती की अवस्‍था से 25 दिन की अवस्‍था तक होता हैं।
नियंत्रण: नियंत्रण के निम्‍नलिखित उपाय एक साथ अपनाने से अच्‍छे परिणाम प्राप्‍त होते है:-
1. शीघ्र बोनी (जुलाई के प्रथम सप्‍ताह तक) से कीट का प्रकोप कम होता है।
2. बीज दर में थोड़ी सी वृद्धि कर बाद में पौध संख्‍या में विरलन करें।
3. कार्बोप्‍यूरान 50 एस.पी. 100 ग्राम/किलोग्राम बीज के हिसाब से बीजोपचार करें।
4. फोरेट 10 जी दानेदार 10 किलोग्राम/हेक्‍टेयर भूमि में बोनी से पूर्व प्रयोग करें।
3. तना छेदक कीट
1. धारीदार तना छेदक: इल्लियां हल्‍के पीले रंग की काले सिर वाली होती हैं जिनके शरीर पर लंबाई में भूरी धारियां पाई जाती हैं। पूर्ण विकसित इल्‍ली 2-3 सेमी. लंबी होती है। इल्लियां पहले पत्‍ती को खुरच-खुरच कर खाती हैं और बाद में इस प्रकार से क्षति करती हैं जिससे मृत केन्‍द्र (डेड हार्ट) बन जाता है। इस कीट के प्रकोप से 80 प्रतिशत तक हानि आंकी गई है।
नियंत्रण:
1. कीट ग्रस्‍त पौधों को उखाड़ कर नष्‍ट कर देना चाहिए।
2. फसल कटाई के बाद बचे हुए ठूंठों को जला देना चाहिए।
3. गंगा-5 तथा संकुलित जातियों में इस कीट का प्रकोप कम होता है।
4. छोटी अवस्‍था में पौधों पर फासफोमिडान 100-150 मि.ली./हेक्‍टेयर का छिड़काव करें।
5. इण्‍डोसल्‍फान 4 जी. अथवा कार्बोफ्यूरान 3 जी, 10 किलोग्राम/हेक्‍टेयर के हिसाब से पोंगली में डाले।
4. गुलाबी तना छेदक: इस कीट की इल्लियां हल्‍की गुलाबी रंग की लाल भूरे सिर वाली होती हैं। ये लगभग 2.5 सेमी. लंबी होती हैं। अंडे से बाहर निकलने के बाद इल्‍ली पर्णच्‍छेद में छेद कर तने में प्रवेश करके उसे खाती है। फलस्‍वरूप पौधे पीले पड़ जाते हैं तथा मध्‍य की पत्तियां सूख कर मृत केन्‍द्र बन जाता है।
नियंत्रण: पूर्व में बताये गये धारीदार तना छेदक कीट के नियंत्रण के लिए दिये गये उपायों के समान।
5. माहू: हरे काले रंग के माहू कीट झुंडों में रहते हैं जो ऊपरी नाजुक पत्तियों तथा मांझर से रस चूसकर नुकसान पहुंचाते हैं। रस चूसने से पत्तियों पीली पड़ जाती हैं तथा पराग भी झड़ता है।
नियंत्रण: मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. अथवा डायमिथोयेट 30 ई.सी. का 1 मि.ली./लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
6. भुट्टे की इल्‍ली (चने की इल्‍ली): ये इल्‍ली हल्‍के भूरे रंग की होती हैं जिसके पृष्‍ठ भाग पर तथा बाजू में एक-एक रेखाएं होती हैं। पूर्ण विकसित इल्‍ली लगभग 3.5 सेमी. लंबी होती हैं। इल्लियां भुट्टे के अग्र भाग, मांझर तथा कलीकाओं के साथ ही नरम दानों को खाकर नुकसान पहुंचाती हैं।
नियंत्रण: कार्बोरिल 10 प्रतिशत 20 किलोग्राम/हेक्‍टेयर का भुरकाव अथवा इण्‍डोसल्‍फान 35 ई.सी; 1200 मि.ली./हेक्‍टेयर का छिड़काव करें।
गहाई: मक्‍का फसल में सबसे महत्‍वपूर्ण कार्य गहाई है क्‍योंकि अधिक उत्‍पादन के बाद गहाई करना एक मुख्‍य समस्‍या के रूप में सामने आती है। दाने निकालने हेतु सेलर उपलब्‍ध है। साधारण थ्रेसर में थोड़ा सुधार कर मक्‍का की गहाई की जा सकती है। इसमें मक्‍के के भुट्टे के छिलके निकालने की आवश्‍यकता नहीं है। सीधे भुट्टे सूखे जाने पर थ्रेसर में डालकर गहाई की जा सकती है, साथ ही दाने का कटाव भी नहीं होता।
कड़बी एवं भुट्टे खेत में काफी सूख जाते हैं। इस दशा में सीधे कड़बी भुट्टे सहित थ्रेसर में डालने से भी दाने आसानी से निकाले जा सकते हैं एवं कड़बी का भूसा जानवरों के खाने योग्‍य बन जाते हैं।

मूंग

मूंग

मध्‍य प्रदेश में मूंग खरीफ मौसम की कम समय में पकने वाली एक मुख्‍य फसल है। प्रदेश में इसे लगभग 1 लाख हेक्‍टेयर में लिया जाता है जिसकी औसतन उपज 340 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर है। मूंग की फसल को खरीफ, रबी व जायद तीनों मौसम में लगाया जाता है। उन्‍नत जातियों एवं उत्‍पादन की नई तकनीक, सस्‍य पद्धतियों को अपनाकर पैदावार को 10-15 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर तक बढ़ाया जा सकता है।
जलवायु: मूंग की खेती विभिन्‍न प्रकार की जलवायु में ली जाती है। अधिक वर्षा मूंग की फसल के लिये हानिकारक है। लगभग 60-76 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इस फसल को अधिक तापक्रम तथा फ‍लि‍यॉं पकते समय शुष्‍क मौसम एवं उच्‍च तापक्रम लाभदायक होता है।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी: मूंग सभी प्रकार की भूमि में लगाई जा सकती है। बलुई दोमट भूमि जिसमें जल निकास उचित हो एवं जिसका पी.एच. मान 7-8 हो, उपयुक्‍त होती है। भूमि में प्रचुर मात्रा में स्‍फुर होना लाभप्रद होता है। दो या तीन बार हल या बखर से जुताई करके खेत में बुवाई हेतु जून के अं‍तिम पखवाड़े तक तैयार कर लेना चाहिए। दूसरी बखरनी के पूर्व खेत में सड़ी गोबर की खाद 5 टन प्रति हेक्‍टेयर के हिसाब से मिलाना चाहिए।

बीज की मात्रा एवं उपचार: खरीफ मौसम में मूंग का बीज 15-20 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर लगता है। जायद में बीज की मात्रा 25-30 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर होती है। थायरम 3 ग्राम कार्बेडाजिम फफूंदनाशक दवा से प्रति किलो ग्राम बीज उपचारित करने से बीज एवं भूमि जनित बीमारियों से फसल की रक्षा होती है। इसके बाद बीज को राइजोबियम कल्‍चर से उपचारित करें। 5 ग्राम राइजोबियम कल्‍चर प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें और छाया में सुखा कर शीघ्र बुवाई करना चाहिए। कल्‍चर के उपचार से पौधें की जड़ों पर रायजोबियम की गांठे ज्‍यादा बनती है जिससे नत्रजन स्थिरीकरण की क्रिया ज्‍यादा होती है। पी.एस.बी. कल्‍चर का उपयोग लाभप्रद होता है।
बोने का समय एवं विधि: अधिक उत्‍पादन के लिए बोनी का समय एक मुख्‍य कारक है। खरीफ में जून के अंतिम सप्‍ताह से जुलाई के द्वितीय सप्‍ताह तक पर्याप्‍त वर्षा होने पर बुआई करें। जायद में फरवरी के दूसरे से तीसरे सप्‍ताह से मार्च के दूसरे सप्‍ताह तक बुवाई करनी चाहिए। बुआई नारी, दुफन या तिफन से कतारों में बोना चाहिए। कतारों के बीच 30 सेमी. व पौधे से पौधे के बीच 10 सेमी. और बोनी 4-5 सेमी. गहराई पर करें। जायद के कतारों की दूरी 20 से 25 सेमी. रखना चाहिए ताकि खरीफ से ज्‍यादा पौध संख्‍या प्रति हेक्‍टेयर प्राप्‍त हो।
सिंचाई एवं उर्वरक की मात्रा, देने की विधि: मूंग के लिए 20 किलो ग्राम नत्रजन, 50 किलो ग्राम स्‍फुर (अर्थात 100 किलो ग्राम डी.ए.पी. प्रति हेक्‍टेयर) बोने के समय प्रयोग करना चाहिए। गंधक की कमी वाले क्षेत्रों में गंधक युक्‍त खाद 20 किग्रा. गंधक प्रति हेक्‍टेयर के हिसाब से देना चाहिए। मिट्टी में पोटाश की कमी होने पर 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्‍टेयर बोनी के समय दें।
सिंचाई एवं जल निकास: प्राय: खरीफ में सिंचाई की आवश्‍यकता नहीं होती है। परंतु फूल अवस्‍था में सूखे की स्थिति में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है। अधिक वर्षा की स्थिति में खेत में पानी की निकासी करना जरूरी है। जायद में मूंग की फसल में खरीफ की तुलना में पानी की ज्‍यादा आवश्‍यकता होती है। 10 से 15 दिन के अंतराल पर 4-6 सिंचाई करनी चाहिए तथा अधिक गर्मी होने पर‍ सिंचाई का अंतराल 8-10 दिन का रखें।
निंदाई-गुड़ाई: प्रथम निंदाई बुआई के 20-25 दिन के अंतर व दूसरी 30-40 दिन बाद करानी चाहिए। खेत में 2-3 बार कुल्‍पा चलाकर खेत को नींदा रहित रखें। खरपतवार नियंत्रण हेतु निंदा नाशक दवाइयॉं जैसे- फ्लूक्‍लोरेलिन 45 ई.सी. या पेन्‍डीमीथीलीन का प्रयोग 1.5 मि.ली. प्रति हेक्‍टेयर भी किया जा सकता है। बासालीन 2 लीटर/हेक्‍टेयर के मान से 600 से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर बोनी पूर्व नमी युक्‍त खेत में छिड़काव करें तथा मिट्टी मिलायें।
पौध संरक्षण:
(अ) कीट: फसल की प्रारंभिक अवस्‍था में तना मक्‍खी, फली बीटल, हरी इल्‍ली, सफेद मक्‍खी, माहो, जैसिड, थ्रिप्‍स आदि का प्रयोग होता है।
1. फली बीटल: ये कीट पत्तियों को कुतर कर गोलाकार छेद बनाते हैं। इसके नियंत्रण हेतु क्विनालफास 1:5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो ग्राम/हेक्‍टेयर की दर से भुरकाव करें।
2. रस चूसने वाले कीट: फसल पर हरा फुदका, सफेद मक्‍खी, माहो एवं थ्रीप्‍स का आक्रमण होता है। ये सभी कीट पत्तियों से रस चूसते हैं, जिससे पौधे की बढ़वार रूक जाती है तथा उपज में कमी आती है। इसके नियंत्रण हेतु डायमेथेएट 30 ईसी. 0.03 प्रतिशत या फास्‍फोमिडान 25 एम.एल. 250 मि.ली. प्रति हेक्‍टैयर या मिथाइल डिमेक्रान 25 ईसी. 1000 मि.ली. प्रति हेक्‍टेयर छिड़काव करें।
(ब) रोग:
मेक्रोफिमिना: कत्‍थाई भूरे रंग के विभिन्‍न आकार के धब्‍बे पत्तियों के निचले सतह पर मेक्रोफिमिना एवं सरकोस्‍पोरा फफूंद के द्वारा बनते हैं। इनकी रोकथाम के लिए फसल पर 0.5 कार्बेन्‍डाजिम या डायथेन जेड़ 78 को 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें।
भभूतिया (पाउडरी मिल्‍डय) रोग: यह रोग अगस्‍त माह के प्रथम सप्‍ताह में आता है तथा 30-40 दिन की फसल में पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है। देर से बोई गई फसल पर इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु 0.1 प्रतिशत (1 ग्राम कार्बेन्‍डाजिम प्रति लीटर पानी में) घोल बनाकर छिड़काव करें। फसल की 30-40 दिन की अवस्‍था पर छिड़काव काफी लाभप्रद पाया गया है।
पीला मोजेक वायरस: यह सफेद मक्‍खी द्वारा फैलने वाला विष्‍णु जनित रोग है। इसमें पत्तियों तथा फलियॉं पीली पड़ जाती है। इसमें उपज पर प्रतिकूल असर होता है। सफेद मक्‍खी नियंत्रण हेतु मोनोक्रोटोफास 36 ईसी. 750 मि.ली. दवा प्रति हेक्‍टेयर छिड़काव करें। प्रभावित पौधों को उखाड़कर नष्‍ट कर देना चाहिए। पीला मोजेक वायरस निरोधक किस्‍मों को लगायें।
फसल कटाई एवं गहाई: जब फलियॉं काली पड़कर पकने लगे तब उनकी तुड़ाई करना चाहिए। इन फलियों को सुखाकर गहाई करनी चाहिए।
उपज: उन्‍नत तकनीक से मूंग की खेती करने पर 10-12 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर उपज प्राप्‍त हो सकती है।

मसूर

मसूर

मसूर का दलहनी फसल के रूप में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। मध्‍यप्रदेश में इसका क्षेत्रफल लगभग 5 लाख हेक्‍टेयर है। राज्‍य में चने के बाद मसूर का क्षेत्रफल एवं उत्‍पादन दोनों में दूसरा स्‍थान है। बारानी क्षेत्रों में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। अच्‍छे बाजार भाव और अधिक उपज मिलने से कृषक इसे सिंचित क्षेत्र में भी ले रहे हैं। दाल के लिये उपयोग के अतिरिक्‍त कई प्रकार के व्‍यंजनों में भी इसका उपयोग किया जाता है।
मध्‍यप्रदेश में मुख्‍य रूप से विदिशा, सागर, रायसेन, दमोह, जबलपुर, सतना, पन्‍ना, रीवा, नरसिंहपुर, सीहोर, ग्‍वालियर एवं भिण्‍ड आदि जिलों में इसकी खेती की जाती है।
भूमि: मसूर सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है, किंतु दुमट और भारी भूमि इसके लिये अधिक उपयुक्‍त है। भूमि का पीएच मान 6.5 से 7.0 के बीच होना चाहिये तथा खेत में जल निकास का भी अच्‍छा प्रबंध होना चाहिये अन्‍यथा फसल की बढ़वार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
भूमि की तैयारी: भूमि के तैयारी के लिये खेत की पहले एक बार हल्‍की जुताई कर बखनी करें तथा पाटा चलाकर भूमि को समतल करें जिससे नमी संरक्षित रहे। समतल खेत में बुआई से बीज एक समान गहराई पर गिरता है। इससे अंकुरण अच्‍छा होता है।
उन्‍नत किस्‍में: प्रदेश में उन्‍नत किस्‍मों का फैलाव हो रहा है। स्‍थानीय जातियों की तुलना में अधिक उपज तथा रोग प्रकोप में कमी के कारण उन्‍नत जातियॉं कृषकों द्वारा अपनाई जा रही हैं। उन्‍नत किस्‍मों का विवरण निम्‍नानुसार है:-
1. के-75 (मल्लिका): यह जाति 115-120 दिन में पकती है। इसकी औसत उपज 10-12 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। इसका दाना छोटा होता है, जिसके 100 दानों का वजन 2.6 ग्राम है। यह जाति संपूर्ण विंध्‍य क्षेत्र अर्थात सीहोर, भोपाल, विदिशा, नरसिंहपुर, सागर, दमोह एवं रायसेन आदि जिलों के लिये उपयुक्‍त है।
2. जे.एल.-1: इस जाति की पकने की अवधि 112-118 दिन है तथा औसत उपज 11-13 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। इसका दाना मध्‍यम आकार का होता है तथा 100 दानों का वजन 2.8 ग्राम होता है। यह जाति भी संपूर्ण विश्‍व क्षेत्र के लिये उपयुक्‍त है।
3.एल-4076: यह जाति 115-125 दिन में पककर तैयार होती है। इसकी औसत उपज 10-15 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। यह उकठा रोग निरोधक है। इसका दाना अपेक्षाकृत बड़े आकार का होता है। 100 दानों का वजन 3.0 ग्राम होता है। यह जाति प्रदेश के सभी क्षेत्रों के लिये उपयुक्‍त है।
4. जे.एल.-3: मध्‍यम अवधि की नई विकसित यह किस्‍म 110-115 दिन में पकती है तथा 14-15 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर उपज देती है। इसका दाना मध्‍यम आकार का होता है। इसके 100 दानों का वजन लगभग 3.0 ग्राम होता है। यह जाति संपूर्ण विंध्‍य क्षेत्र के लिये उपयुक्‍त है।
5. आई.पी.एल.-18 (नूरी): यह किस्‍म 110-115 दिन में पकती है तथा औसत उत्‍पादन 12-14 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। मध्‍यम आकार के दानों वाली इस जाति का वजन 3.0 ग्राम है।
6. एल. 9-2: देरी से पकने वाली यह किस्‍म 135-140 दिन में पकती है। इसकी औसत उपज 8-10 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर है। इसके दाने छोटे आकार के होते हैं। यह जाति भिण्‍ड तथा ग्‍वालियर क्षेत्रों के लिये अधिक उपयुक्‍त है।
बीज की मात्रा एवं बोने की विधि: सामान्‍यत: 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्‍टेयर क्षेत्र में बोनी के लिये पर्याप्‍त होता है। बीज का आकार छोटा होने पर यह मात्रा 35 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर होनी चाहिये। सामान्‍य समय में बुवाई के लिये कतार से कतार की दूरी 30 सेमी. रखना चाहिये। देरी से बुवाई के लिये कतारों की दूरी कम कर 20-25 सेमी. कर देना चाहिए। बुवाई नारी या सीडड्रिल से 5-6 मी. की नमी युक्‍त गहराई पर करना चाहिये।
बीजोपचार: मसूर की फसल को विभिन्‍न बीज जनित रोगों विशेषकर उकठा रोग से बचाने के लिये बीज को उपचारित करके बोना आवश्‍यक है। थाइरम 2 ग्राम तथा 1 ग्राम कार्बेन्‍डाजिम दवा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करें। बीज उपचार करने के यंत्र से बीज उपचारित करें। इसके बाद बीज को 5 ग्राम राइजोबियम कल्‍चर एवं 5 ग्राम पी.एस.बी. क्‍ल्‍चर से उपचारित कर बोना चाहिये। फफूंद नाशक से उपचारित करने के बाद दोनों कल्‍चर को बीज में मिलाकर थोड़ा पानी छिड़क कर हाथ से अच्‍छी तरह मिलाएं। बीज को थोड़ी देर छाया में सुखा कर बोनी शीघ्रता से पूरी करें।
बुवाई का समय: असिंचित अवस्‍था में नमीं उपलब्‍ध रहने पर अक्‍टूबर के प्रथम सप्‍ताह से नवम्‍बर के प्रथम सप्‍ताह तक मसूर की बोनी करनी चा‍हिये। मसूर की सिंचित अवस्‍था में बोनी मध्‍य अक्‍टूबर से मध्‍य नवम्‍बर तक की जा सकती है। नवम्‍बर के अंतिम सप्‍ताह के बाद बोनी करने से पकने की अवस्‍था में तापक्रम बढ़ने से फसल समय से पूर्व पकने लगती है तथा दाना छोटा पड़ जाता है और उपज में कमी आती है।
खाद एवं उर्वरक: सिंचित फसल के लिये 20-25 किलोग्राम नत्रजन तथा 50 किलोग्राम स्‍फुर प्रति हेक्‍टेयर उपयोग करना चाहिए। असिंचित फसल के लिये 15-20 किलोग्राम नत्रजन एवं 30-40 किलोग्राम स्‍फुर का उपयोग प्रति हेक्‍टेयर करना चाहिये। भूमि में पोटाश की कमी होने पर बुवाई के समय 20 किलोग्राम पोटाश देना चाहिये। 5-6 टन प्रति हेक्‍टेयर के हिसाब से गोबर की खाद या कम्‍पोस्‍ट खाद अवश्‍य देना चाहिये।
सिंचाई: सामान्‍यत: मसूर बरानी फसल के रूप में ली जाती है। यदि सिंचाई उपलब्‍ध है तो खेत में पलेवा देकर बुवाई करना चाहिये। इससे अंकुरण अच्‍छा होता है। सामान्‍यत: बाद में सिंचाई की आवश्‍यकता नहीं होती है। सिंचाई उपलब्‍ध होने पर फूल आने के पूर्व एक हल्‍की सिंचाई करना चा‍हिये। इससे भरपूर पैदावार ली जा सकती है।
निंदाई-गुड़ाई: मसूर की फसल में 50 दिनों तक खरपतवारों को नियंत्रित रखना चाहिये। खेत में नींदा उगने पर हैंड हो या डोरा चलाना चाहिये इससे खरपतवार नियंत्रण होगा तथा वायु संचार के लिये गुड़ाई भी हो जाती है। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण्‍ के लिये बुवाई पूर्व फ्लूक्‍लोरोलीन 0.75 किलोग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हेक्‍टेयर 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
पौध संरक्षण:
(अ) कीट: मसूर में माहों, थ्रिप्‍स तथा फली छेदक इल्‍ली कीटों का प्रकोप होता है। माहो एवं थ्रिप्‍स के नियंत्रण के लिये मोनोक्रोटोफास एक मि.ली. प्र‍ति लीटर पानी या मेटासिस्‍टाक्‍स 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें। फल छेदक इल्‍ली के लिए इण्‍डोसल्‍फान 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी या क्विनालफास एक मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करने से कीट नियंत्रित हो जाते हैं। खेत में छिड़काव एक समान होना चाहिए।
(ब) रोग: मसूर में मुख्‍य रूप से उकठा तथा गेरूआ रोग का प्रकोप होता है। उकठा रोग की उग्रता को कम करने हेतु थायरम (3 ग्राम प्रति किलोग्रामे या थायरम 1.5 ग्राम + कार्बन्‍डाजिम 1.5 ग्राम का मिश्रण प्रति किलोग्राम) से बीजोपचार कर बोयें। उकठा निरोधक जैसे जे.एल.-3 आदि बोयें। कभी-कभी गेरूआ रोग का भी प्रकोप होता है। इसके नियंत्रण के लिये डायथेन एम 45, 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए। गेरूआ प्रभावित क्षेत्रों में एल 4076 आदि गेरूआ निरोधक जातियॉं बोयें।
कटाई एवं गहाई: फसल पकने की अवस्‍था में पीली पड़ कर सूखने लगती हैं। फसल की कटाई कर खलिहान में बैलों या ट्रेक्‍टर से गहाई कर पंखे से सफाई करें। बीज को सुखाकर भंडारण करें।