भूमि का चुयन एवं तैयारी: सोयाबीन की खेती अधिक हल्की रेतीली व हल्की भूमि को छोड्कर सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है परन्तु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिए अधिक उपयुक्त होती है। जहां भी खेत में पानी रूकता हो वहां सोयाबीन न उगाये।
ग्रीष्म कालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवश्य करनी चाहिए। वर्षा प्रारम्भ होने पर 2 या 3 बार बखर तथा पाटा चलाकर खेत को तैयार कर लेना चाहिए। इससे हानि पहुंचाने वाले कीटों की सभी अवस्थाएं नष्ट होंगे। ढेला रहित और भूरभुरी मिटटी वाले खेत सोयाबीन के लिए उत्तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत: अधिक उत्पादन के लिए खेत में जल निकास की व्यवस्था करना आवश्यक होता है। जहां तक संभव हो आखरी बखरनी एवं पाटा समय से करें जिससे अंकुरित खरपतवार नष्ट हो सके। यथासंभव मेंड़ और कूड़ रिज एवं फरो बनाकर सोयाबीन बोय।
बीज दर:
1. छोटे दाने वाली किस्में– 70 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर
2. मध्यम दोन वाली किस्में– 80 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर
3. बड़े दाने वाली किस्में– 100 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर
बोने का समय: जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय सबसे उपयुक्त है। बोने के समय अच्छे अंकुरण हेतु भूमि में 10 सेमी गहराई तक उपयुक्त नमी होनी चाहिए। जुलाई के प्रथम सप्ताह के पश्चात बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत बढ़ा देनी चाहिए।
पौध संख्या: 4–5 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर ‘’40 से 60 प्रति वर्ग मीटर‘’ पौध संख्या उपयुक्त है। जे.एस. 75–46, जे.एस. 93–05 किस्मों में पौधों की संख्या 6 लाख प्रति हेक्टेयर उपयुक्त है। असीमित बढ़ने वाली किस्मों के लिए 4 लाख एवं सीमित वृद्धि वाली किस्मों के लिए 6 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर होने चाहिए।
बोने की विधि: सोयाबीन की बौनी कतारों में करनी चाहिए। कतारों की दूरी 30 सेमी. ‘’बौनी किस्मों के लिए‘’ तथा 45 सेमी. बड़ी किस्मों के लिए उपयुक्त है। 20 कतारों के बाद कूड़ जल निथार तथा नमी संरक्षण के लिए खाली छोड़ देना चाहिए। बीज 2.5 से 3 सेमी. गहराई तक बोयें। बीज एवं खाद को अलग-अलग बोना चाहिए जिससे अंकुरण क्षमता प्रभावित न हो।
बीजोपचार: सोयाबीन के अंकुरण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते हैं। इसकी रोकथाम हेतु बीज को थीरम या केप्टान 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम या थायोफेनेट मिथाईल, 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए अथवा ट्राइकोडरमा 4 ग्राम एवं कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज से उपचारित करके बोयें।
कल्चर का उपयोग: फफूँदनाशक दवाओं से बीजोपचार के पश्चात बीज को 5 ग्राम राइजोबियम एवं 5 ग्राम पी.एस.बी.कल्चर प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए एवं शीघ्र बौनी करना चाहिए। ध्यान रहें कि फफूँदनाशक दवा एवं कल्चर को एक साथ न मिलाऐं।
समन्वित पोषण प्रबंधन: अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) 5 टन प्रति हेक्टेयर अंतिम बखरनी के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें तथा बोते समय 20 किलो नत्रजन, 60 किलो स्फुर, 20 किलो पोटाश एवं 20 किलो गंधक प्रति हेक्टेयर दें। यह मात्रा मिटटी परीक्षण के आधर पर घटाई बढ़ाई जा सकती है तथा संभव नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के उपयोग को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में लगभग 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिए। गहरी काली मिटटी में जिंक सल्फेट, 50 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर एवं उथली मिटिटयों में 25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 5 से 6 फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन: फसल के प्रारम्भिक 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्यक होता है। बतर आने पर डोरा या कुल्फा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करें व दूसरी निंदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन बाद करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारो को नष्ट करने के लिए क्यूजेलेफोप इथाइल एक लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा घांस कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए इमेजेथाफायर 750 मिली. ली. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव की अनुशंसा की गई है। नींदानाशक के प्रयोग में बोने के पूर्व फलुक्लोरेलीन 2 लीटर प्रति हेक्टेयर आखरी बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़कें और पेन्डीमेथलीन 3 लीटर प्रति हेक्टेयर या मेटोलाक्लोर 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर फलैटफेन या फलेटजेट नोजल की सहायकता से पूरे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों के प्रयोग के मामले में मिटटी में पर्याप्त पानी व भुरभुरापन होना चाहिए।।
सिंचाई: खरीफ मौसम की फसल होने के कारण सामान्यत: सोयाबीन को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। फलियों में दाना भरते समय अर्थात सितंबर माह में यदि खेत में नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो हल्की सिंचाई करना सोयाबीन के विपुल उत्पादन लेने हेतु लाभदायक है।
पौध संरक्षण:
कीट: सोयाबीन की फसल पर बीज एवं छोटे पौधे को नुकसान पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्लियां, तने को नुकसान पहुंचाने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का प्रकोप होता है एवं कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आ जाती है। इन कीटों के नियंत्रण के उपाय निम्नलिखित हैं:
कृषिगत नियंत्रण: खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें। मानसून की वर्षा के पूर्व बोनी नहीं करें। मानसून आगमन के पश्चात बोनी शीघ्रता से पूरी करें। खेत नींदा रहित रखें। सोयाबीन के साथ ज्वार अथवा मक्का की अंतरवर्तीय खेती करें। खेतों को फसल अवशेषों से मुक्त रखें तथा मेढ़ों की सफाई रखें।
रासायनिक नियंत्रण: बुआई के समय थयोमिथोक्जाम 70 डब्लू एस.3 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से प्रारम्भिक कीटों का नियंत्रण होता है अथवा अंकुरण के प्रारम्भ होते ही नीला भृंग कीट नियंत्रण के लिए क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पेराथियान (फालीडाल 2 प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत) 25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए। कई प्रकार की इल्लियां पत्ती, छोटी फलियों और फलों को खाकर नष्ट कर देती हैं। इन कीटों के नियंत्रण के लिए घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 700 से 800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला भाग चौड़ा होता है, सोयाबीन के फूलों और फलियों को खा जाती है जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती है। चूंकि फसल पर तना मक्खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्ली लगभग एक साथ आक्रमण करते हैं अत: प्रथम छिड़काव 25 से 30 दिन पर एवं दूसरा छिड़काव 40-45 दिन पर फसल पर आवश्य करना चाहिए।
छिड़काव यन्त्र उपलब्ध न होने की स्थिति में निम्नलिखित में से किसी एक पावडर (डस्ट) का उपयोग 20–25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए
1. क्यूनालफॉस – 1.5 प्रतिशत
2. मिथाईल पैराथियान – 2.0 प्रतिशत
जैविक नियंत्रण: कीटों के आरम्भिक अवस्था में जैविक कट नियंत्रण हेतु बी.टी एवं ब्यूवेरीया बैसियाना आधरित जैविक कीटनाशक 1 किलोग्राम या 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 35-40 दिनों तथा 50-55 दिनों बाद छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई समतुल्य का 500 लीटर पानी में घोलकर बनाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशकों की जगह जैविक कीटनाशकों को अदला-बदली कर डालना लाभदायक होता है।
1. गर्डल बीटल प्रभावित क्षेत्र में जे.एस. 335, जे.एस. 80–21, जे.एस 90–41 , लगायें
2. निंदाई के समय प्रभावित टहनियां तोड़कर नष्ट कर दें
3. कटाई के पश्चात बंडलों को सीधे गहराई स्थल पर ले जावें
4. तने की मक्खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें
(ब) रोग:
1. फसल बोने के बाद से ही फसल की निगरानी करें। यदि संभव हो तो लाइट ट्रेप तथा फेरोमेन टयूब का उपयोग करें।
2. बीजोपचार आवश्यक है। इसके बाद रोग नियंत्रण के लिए फफूँद के आक्रमण से बीज सड़न रोकने हेतु कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम + 2 ग्राम थीरम के मिश्रण से प्रति किलो ग्राम बीज उपचारित करना चाहिए। थीरम के स्थान पर केप्टान एवं कार्बेन्डाजिम के स्थान पर थायोफेनेट मिथाइल का प्रयोग किया जा सकता है।
3. पत्तों पर कई तरह के धब्बे वाले फफूंद जनित रोगों को नियंत्रित करने के लिए कार्बेन्डाजिम 50 डबलू पी या थायोफेनेट मिथाइल 70 डब्लू पी 0.05 से 0.1 प्रतिशत से 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए। पहला छिड़काव 30 -35 दिन की अवस्था पर तथा दूसरा छिड़काव 40 – 45 दिनों की अवस्था पर करना चाहिए।
4. बैक्टीरियल पश्चयूल नामक रोग को नियंत्रित करने के लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या कासूगामाइसिन की 200 पी.पी.एम. 200 मि.ग्रा; दवा प्रति लीटर पानी के घोल और कापर आक्सीक्लोराइड 0.2 (2 ग्राम प्रति लीटर ) पानी के घोल के मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए। इराके लिए 10 लीटर पानी में 1 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन एवं 20 ग्राम कापर अक्सीक्लोराइड दवा का घोल बनाकर उपयोग कर सकते हैं।
5. गेरूआ प्रभावित क्षेत्रों (जैसे बैतूल, छिंदवाडा, सिवनी) में गेरूआ के लिए सहनशील जातियां लगायें तथा रोग के प्रारम्भिक लक्षण दिखते ही 1 मि.ली. प्रति लीटर की दर से हेक्साकोनाजोल 5 ई.सी. या प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. या आक्सीकार्बोजिम 10 ग्राम प्रति लीटर की दर से ट्रायएडिमीफान 25 डब्लू पी दवा के घोल का छिड़काव करें।
6. विषाणु जनित पीला मोजेक वायरस रोग व वड व्लाइट रोग प्राय: एफ्रिडस सफेद मक्खी, थ्रिप्स आदि द्वारा फैलते हैं अत: केवल रोग रहित स्वस्थ बीज का उपयोग करना चाहिए एवं रोग फैलाने वाले कीड़ों के लिए थायोमेथेक्जोन 70 डब्लू एव. से 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम की दर से उपचारित करें एवं 30 दिनों के अंतराल पर दोहराते रहें। रोगी पौधों को खेत से निकाल दें। इथोफेनप्राक्स 10 ई.सी. 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर थायोमिथेजेम 25 डब्लू जी, 1000 ग्राम प्रति हेक्टेयर।
7. पीला मोजेक प्रभावित क्षेत्रों में रोग के लिए ग्राही फसलों (मूंग, उड़द, बरबटी) की केवल प्रतिरोधी जातियां ही गर्मी के मौसम में लगायें तथा गर्मी की फसलों में सफेद मक्खी का नियमित नियंत्रण करें।
8. नीम की निम्बोली का अर्क डिफोलियेटर्स के नियंत्रण के लिए कारगर साबित हुआ है।
फसल कटाई एवं गहाई: अधिकांश पत्तियों के सूख कर झड़ जाने पर और 10 प्रतिशत फलियों के सूख कर भूरी हो जाने पर फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। पंजाब 1 पकने के 4–5 दिन बाद, जे.एस. 335, जे.एस. 76–205 एवं जे.एस. 72–44 जे.एस. 75–46 आदि सूखने के लगभग 10 दिन बाद चटकने लगती हैं। कटाई के बाद गडढ़ो को 2–3 दिन तक सुखाना चाहिए जब कटी फसल अच्छी तरह सूख जाये तो गहराई कर दोनों को अलग कर देना चाहिए। फसल गहाई थ्रेसर, ट्रेक्टर, बैलों तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिए। जहां तक संभव हो बीज के लिए गहाई लकड़ी से पीट कर करना चाहिए, जिससे अंकुरण प्रभावित न हो।
अन्तर्वर्तीय फसल पद्धति: सोयाबीन के साथ अन्तर्वर्तीय फसलों के रूप में निम्नानुसार फसलों की खेती अवश्य करें।
1. अरहर + सोयाबीन (2:4)
2. ज्वार + सोयाबीन (2:2)
3. मक्का + सोयाबीन ( 2:2)
4. तिल + सोयाबीन (2:2)
अरहर एवं सोयाबीन में कतारों की दूरी 30 से.मी. रखें।
Friday, May 8, 2009
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