Wednesday, May 13, 2009

अरहर

अरहर
भारत विश्‍व में दलहनी फसलों के क्षेत्रफल एवं उत्‍पादन में प्रथम स्‍थान पर है। देश में दलहनी फसलें 2 करोड़ 38 लाख हेक्‍टर भूमि में बोई जाती है, जिनकी उत्‍पादकता केवल 622 कि.ग्रा/हे. जो कि बहुत कम है। मध्‍यप्रदेश का स्‍थान दलहनी फसलों के क्षेत्र एवं उत्‍पादन में क्रमश: पहला व दूसरा है। मध्‍यप्रदेश में दलहनी फसलें 50.4 लाख हेक्‍टर भूमि में उगाई जाती हैं, यह सीधे नत्रजन ग्रहण कर पौधों को देती है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। दलहनी फसलें खाद्यान्‍न फसलों की अपेक्षा अधिक सूखारोधी होती हैं। इसलिये सूखा ग्रस्‍त प्रदेशों में भी इससे अधिक उपज मिलती है। कम अवधि की दलहनी फसलें अंतरवर्तीय व बहुफसली पद्धति में उपयुक्‍त होती हैं। दलहन प्रोटीन का सशक्‍त स्रोत है, इसलिए आम भारतवासियों के भोजन में इनका समावेश होता है।
खरीफ की दलहनी फसलों में अरहर प्रमुख है। मध्‍य प्रदेश में अरहर की खेती लगभग 4.75 लाख हेक्‍टेयर क्षेत्र में की जाती है जिससे औसतन 842 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर उत्‍पादन होता है। उन्‍नत तकनीक से अरहर का उत्‍पादन दो गुना किया जा सकता है।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी: इसे विविध प्रकार की भूमि में लगाया जा सकता है, पर हल्‍की रेतीली दोमट या मध्‍यम भूमि जिसमें प्रचुर मात्रा में स्‍फुर तथा पी.एच.मान 7-8 के बीच हो व समुचित जल निकासी वाली हो, इस फसल के लिये उपयुक्‍त है। गहरी भूमि व पर्याप्‍त वर्षा वाले क्षेत्र में मध्‍यम अवधि की या देर से पकने वाली जातियॉं बोनी चाहिए। हल्‍की रेतीली कम गहरी ढलान वाली भूमि में व कम वर्षा वाले क्षेत्र में जल्‍दी पकने वाली जातियॉं बोनी चाहिए। देशी हल या ट्रेक्‍टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई करें व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। जल निकासी की समुचित व्‍यवस्‍था करें।
बोनी का समय, बीज की मात्रा व तरीका: अरहर की बोनी वर्षा प्रारंभ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्‍यत: जून के अंतिम सप्‍ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्‍ताह तक बोनी करें। जल्‍दी पकने वाली जातियों में 25-30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्‍टेयर एवं मध्‍यम पकने वाली जातियों में 15 से 20 किलो ग्राम बीज/हेक्‍टेयर बोना चाहिए। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 30 से 45 से.मी व मध्‍यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 60 से 75 सें.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 10-15 से.मी. एवं मध्‍यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 20–25 से.मी. रखें।
बीजोपचार: बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा से बीजोपचार करना बहुत जरूरी है। 2 ग्राम थायरस + ग्राम? कार्बेन्‍डेजिम फफूदनाशक दवा प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्‍चर 10 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। पी.एच.बी. कल्‍चर का उपयोग करें।
जातियों का चुनाव: भूमि का प्रकार, बोने का समय, जलवायु आदि के आधर पर अरहर की जातियों का चुनाव करना चाहिए। ऐसे क्षेत्र जहॉ सिंचाई के साधन उपलब्‍ध हो बहुफसलीय फसल पद्धति हो या रेतीली हल्‍की ढलान वाली व कम वर्षा वाली असिंचित भूमि हो तो जल्‍दी पकने वाली जातियां बोनी चाहिए। मध्‍यम गहरी भूमि में जहॉं पर्याप्‍त वर्षा होती हो और सिंचित एवं असिंचित स्थिति में मध्‍यम अवधि की जातियॉ बोनी चाहिए।
उरर्वरक का प्रयोग: बुवाई के समय 20 किग्रा. नत्रजन 50 किग्रा स्‍फुर 20 किग्रा पोटाश व 20 किग्रा गंधक प्रति हेक्‍टेयर कतारों में बीज के नीचे दिया जाना चाहिए। तीन वर्ष में एक बार 25 कि.ग्रा जिंक सल्‍फेट का उपयोग आखरी बखरीनी पूर्व भुरकाव करने से पैदावार में अच्‍छी बढ़ोत्‍तरी होती है।
सिंचाई: जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्‍ध हो वहां एक सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियॉ बनने की अवस्‍था पर करने से पैदावार अच्‍छी होती है।
खरपतवार प्रबंधन: खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निंदाई तथा फूल आने से पूर्व दूसरी निंदाई करें। 2-3 बार खेत में कोल्‍पा चलाने से निंदाओं पर अच्‍छा नियंत्रण रहता है व मिटटी में वायु संचार बना रहता है। पेन्‍डीमेथीलिन 1.25 किग्रा सक्रिय तत्‍व/हे. बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है। नींदानाशक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्‍था पर करनी चाहिए।
अंतरवर्तीय फसल: अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्‍य फसल को पूर्ण पैदावार एवं अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्‍त पैदावार प्राप्‍त होगी। मुख्‍य फसल में कीटों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीटों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। निम्‍न अंतरवर्तीय फसल पद्धति म.प्र. के लिए उपयुक्‍त है:
1. अरहर + मक्‍का या ज्‍वार 2:1 कतारों के अनुपात में (कतारों के बीच की दूरी 40 से.मी)
2. अरहर + मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों के अनुपात में
3. अरहर + उड़द या मूंग 1:2 कतारों के अनुपात में
पौध संरक्षण:
(अ) रोग:
उकटा रोग: इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। यह फयूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणतया फसल में फूल लगने की अवस्‍था पर दिखाई देते हैं। नवम्‍बर से जनवरी महीनें के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है। इससें जडें सड़ कर गहरें रंग की हो जाती हैं तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की ऊचाई तक काले रंग की धारियॉ पाई जाती है। इस बीमारी से बचने के लिए रोग रोधी जातियॉ जैसे सी–11 जवाहर के.एस-7 बी.एस.एम.आर–853, आशा आदि बोयें। उन्‍नत जातियों का बीज बीजोपचार करके ही बोयें । गर्मी में खेत की गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्‍वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम होता है।
2. बांझपन विषाणु रोग: यह रोग विषाणु (वायरस) से फैलता है। इसके लक्षण पौधे के उपरी शाखाओं में पत्तियॉ छोटी , हल्‍के रंग की तथा अधिक लगती हैं और फूल – फली नही लगती है। रूग्‍न पौधों में पत्तियॉ अधिक लगती है। यह रोग माइट मकडी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्‍मों को लगाना चाहिए। खेत में उग आये बेमौसम अरहर के पौधों को उखाड कर नष्‍ट कर देना चाहिए। मकडी का नियंत्रण करना चाहिए।
3. फायटोपथोरा झुलसा रोग: रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्‍सील फफूंदनाशक दवा प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुआई पाल (रिज) पर करना चाहिए और मूंग की फसल साथ में लगायें।
ब. कीट:
1. फली मक्‍खी : यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्‍ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौढ़ बनकर बाहर आती है। दानों का सामान्‍य विकास रूक जाता है।
मादा छोटे व काले रंग की होती है जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती हैं। अंडो से मेगट बाहर आते हैं और दाने को खाने लगते हैं। फली के अंदर ही मेगट शंखी में बदल जाती हैं जिसके कारण दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है। तीन सप्‍ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
2. फली छेदक इल्‍ली: छोटी इल्लियॉ फलियों के हरे उत्‍तकों को खाती हैं व बडे होने पर कलियों , फूलों फलियों व बीजों को नुकसान पहुंचाती हैं। इल्लियॉ फलियों पर टेढे – मेढे छेद बनाती हैं।
इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती हैं। इल्लियॉ पीली, हरी, काली रंग की होती हैं तथा इनके शरीर पर हल्‍की गहरी पटिटयॉ होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्‍ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती हैं।
3. फल्‍ली का मत्‍कुण: मादा प्राय: फलियों पर गुच्‍छों में अंडे देती हैं। अंडे कत्‍थई रंग के होते हैं। इस कीट के शिशु वयस्‍क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं, जिससे फली आडी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड जाते हैं। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्‍ताह में पूरा करते हैं।
4. प्‍लू माथ: इस कीट की इल्‍ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्‍टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दानो के आसपास लाल रंग की फफूंद आ जाती है।
5. ब्रिस्‍टल ब्रिटल: ये भृंग कलियों, फूलों तथा कोमल फलियों को खाती हैं जिससे उत्‍पादन में काफी कमी आती है। यह कीट अरहर मूंग, उड़द, तथा अन्‍य दलहनी फसलों को भी नुकसान पहुंचाता है। भृंग को पकडकर नष्‍ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।
(ब) कीट:
कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित प्रणाली अपनाना आवश्‍यक है
1. कृषि कार्य द्वारा: गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें
2. शुद्ध अरहर न बोयें
3. फसल चक्र अपनायें
4. क्षेत्र में एक ही समय बोनी करनी चाहिए
5. रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करें।
6. अरहर में अन्‍तरवर्तीय फसलें जैसे ज्‍वार, मक्‍का, या मूंगफली को लेना चाहिए।
2. यांत्रिक विधि द्धारा:
1. फसल प्रपंच लगाना चाहिए
2. फेरामेन प्रपंच लगाये
3. पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें एवं उनकों इकटठा करके नष्‍ट करें
4. खेत में चिडियों के बैठने की व्‍यवस्‍था करे।
3. जैविक नियंत्रण द्वारा:
1. एन.पी.वी 5000 एल.ई/हे.+ यू.वी. रिटारडेन्‍ट 0.1 प्रतिशत + गुड 0.5 प्रतिशत मिश्रण का शाम के समय खेत में छिडकाव करें।
2. बेसिलस थूरेंजियन्‍सीस 1 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर + टिनोपाल 0.1 प्रतिशत + गुड 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करे।
4 जैव – पौध पदार्थ के छिड़काव द्वारा:
1. निंबोली सत 5 प्रतिशत का छिड़काव करें।
2. नीम तेल या करंजी तेल 10 -15 मी.ली. + 1 मी.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेन्‍डोविट टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
3. निम्‍बेसिडिन 0.2 प्रतिशत या अचूक 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करें।
5. रासायनिक नियंत्रण द्वारा:
1. आवश्‍यकता पड़ने पर ही कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करें।
2. फली मक्‍खी नियंत्रण हेतु संर्वागीण कीटनाशक दवाओं का छिडकाव करें जैसे डायमिथोएट 30 ई.सी 0.03 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 0.04 प्रतिशत आदि।
3. फली छेदक इल्लियों के नियंत्रण के लिए– फेनवलरेट 0.4 प्रतिशत चूर्ण या क्‍लीनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण या इन्‍डोसल्‍फान 4 प्रतिशत चूर्ण का 20 से 25 किलोग्राम/हे. की दर से भुरकाव करें या इन्‍डोसलफॉन 35 ईसी. 0.7 प्रतिशत या क्‍वीनालफास 25 ई.सी 0.05 प्रतिशत या क्‍लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी. 0.6 प्रतिशत या फेन्‍वेलरेट 20 ई.सी 0.02 प्रतिशत या एसीफेट 75 डब्‍लू पी 0.0075 प्रतिशत या ऐलेनिकाब 30 ई.सी 500 ग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हे. या प्राफेनोफॉस 50 ई.सी एक लीटर प्रति हे. का छिड़काव करें। दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु प्रथम छिडकाव सर्वागीण कीटनाशक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्‍पर्श या सर्वागीण कीटनाशक दवाई का छिड़काव करें। कीटनाशक का तीन छिड़काव या भुरकाव पहला फूल बनने पर दूसरा 50 प्रतिशत फुल बनने पर और तीसरा फली बनने की अवस्‍था पर करना चाहिए।
नोट: इन्‍डोसल्‍फान 35 ई.सी 0.07 प्रतिशत का छिड़काव करें। यह लाभदायी कीट केम्‍पोलिटेसीस क्‍लोरिडी नामक कीट के लिए बहुत सुरक्षित पाया गया है।
कटाई एवं गहाई: जब पौधे की पत्तियॉं गिरने लगे एवं फलियॉ सूखने पर भूरे रंग की पड़ जाए तब फसल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सूखाकर ट्रेक्‍टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिशत नमी रहने तक सूखाकर भण्‍डारित करना चाहिए।
उन्‍नत उत्‍पादन तकनीक अपनाकर अरहर की खेती करने से 15-20 क्विं/हे. उपज असिंचित अवस्‍था में और 25-30 क्विं/हे. उपज सिंचित अवस्‍था में प्राप्‍त की जा सकती है।

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