धान
धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ अंचल का मध्य प्रदेश से एक राज्य के रूप में अलग हो जाने के बावजूद भी इस प्रदेश में लगभग 17 लाख हेक्टर भूमि में धान की खेती प्रमुखता के साथ की जाती है़। प्रदेश के बालाघाट, रीवा, सतना, सीधी, शहडोल, उमरिया, कटनी, जबलपुर, सिवनी, डिन्डौरी, मण्डला व पन्ना जिलों के अधिकांश क्षेत्रों में धान की खेती प्रमुखता से की जाती है जबकि दमोह, ग्वालियर, नरसिंहपुर, छतरपुर, टीकमगढ़, छिंदवाड़ा, बैतूल, होशंगाबाद व रायसेन जिलों के कुछ सीमित क्षेत्रों में धान का खेती की प्रचलन है।
धान की अधिकतर खेती वर्षा आधारित दशा में होती है जो धान के कुल क्षेत्रफल का लगभग 75 प्रतिशत है। इन क्षेत्रों में कहीं-कहीं सितम्बर-अक्टूबर माह में फसल सुरक्षा हेतु पानी की सुविधा है। सिंचित क्षेत्रों में धान की खेती बालाघाट और जबलपुर जिलों में ही सीमित है।
धान की खेती में खामियॉं:
यद्यपि धान के कुल रकबा के 70 प्रतिशत भाग में स्थानीय प्रजातियों के बजाय विकसित प्रजातियों की बोनी की जाती है किंतु किसान खेतों की दशा, जल की उपलब्धता के अनुसार उनका सही चयन नहीं करता है।
खेती के लिए विकसित उन्नत कृषि तकनीकी जैसे बुवाई, प्रबंधन, पोषण, जल-प्रबंधन, पौधा संरक्षण आदि पर अमल न होना।
धान में एकीकृत नींदा नियंत्रण पद्धति ही सर्वोत्तम होती है और नींदा-प्रबंधन सबसे कठिन समस्या है। समय पर सुनियोजित नींदा-नियंत्रण न करना इसकी खेती में बाधक है।
धान में कई प्रकार के कीटों एवं रोगों का प्रकोप शैशव काल से फसल पकने की अवस्था तक किसी न किसी रूप में होता रहता है। इनके प्रभावी नियंत्रण को न अपनाना एक समस्या बन जाती है।
धान की खेती की प्रचलित पद्धतियॉ:
(अ) सीधे बीज बोने की पद्धतियॉ: खेत में सीधे बीज बोकर निम्न तरह से धान की खेती की जाती है।
1. छिटकवां बुवाई
2. नाड़ी हल या दुफन या सीड ड्रिल से कतारों में बुवाई
3. बियासी पद्धति (छिटकवां विधि से सवागुना अधिक बीज बोकर लगभग एक महीने की फसल की पानी भरे खेत में हल्की जुताई)
(ब) रोपा विधि: रोपणी में पौध तैयार करके लगभग एक महीने के पौधों को मचौआ किये गये खेतों में रोपण करना। रोपण कार्य कतारों में निर्धारित दूरी पर नहीं किया जाता है। अनियंत्रित ढंग से बहुत अधिक पौधों को काफी सघनता से रोपण करने से रोपाई का खर्च एवं समय आदि बढ़ जाता है।
धान की खेती वाले खेतों को दशाऍ:
(अ) वर्षा आधीन खेती के क्षेत्रों में:
1. बिना बंधान वाले समतल या हल्के ढलान वाले खेत: इस तरह के खेत अधिकतर डिन्डौरी, मण्डला, शहडोल व सीधी जिलों के पहाड़ी क्षेत्रों में हैं और इन खेतों में बहुत जल्दी पकने वाली (लगभग 80-90 दिनों) स्थानीय प्रजातियों की खेती की जाती है।
2. हल्की बंधान वाले खेत: इन खेतों में 30 से 60 सेमी. ऊंची मेड़ रहती हैं। ऐसी खेती हल्की से भारी सभी प्रकार की जमीनों में होती है। खेतों के आकार छोटे-बड़े (0.1 एवं 1.0 हेक्टेयर, तक के) होते हैं। बालाघाट और सिवनी जिलों के खेतों के आकार अधिक तर छोटे रहते हैं।
3. ऊंची बंधान वाले खेत: इन खेतों में 60 सेमी. से अधिक ऊंची और मोटी मेड़ें रहती हैं तथा खेतों में ज्यादा समय तक पानी रोका जा सकता है। इन खेतों का भी आकार छोटा से बड़ा तक रहता है और सभी प्रकार के जमीनों में ऐसे खेत होते हैं।
4. अधिक जल भराव वाले निचले खेत: इन खेतों में वर्षा का पानी जल्दी इकट्ठा होकर जमा हो जाता है जिसे आसानी से नहीं निकाला जा सकता है। अधिकतर पहाड़ी या उतार-चढ़ाव वाले क्षेत्रों में ऐसे खेत होते हैं।
5. बॉंध वाले क्षेत्र: रीवा, सीधी, शहडोल, कटनी जिलों में ढलान के क्षेत्रों में बहुत ऊंची व मजबूत मेड़ें बनाकर बड़े आकारों (2.0 से 5.0 हेक्टर) के खेत बनाए जाते हैं जिन्हें स्थानीय बोलचाल में बांधों के नाम से संबोधित किया जाता है। इनमें वर्षा का पानी काफी मात्रा में इकट्ठा होता है। इनके निचले भागों को छोड़कर, ऊंचे भागों में जहॉ जलस्तर कम रहता है, धान की खेती की जाती है।
(ब) सिंचित खेत: नहरों, तालाबों, नदियां, नालों या नलकूपों में से किसी एक श्रोत से पूर्णकालिक या आंशिक रूप में (सुरक्षात्मक) सिंचाई की सुविधा वाले खेत।
प्रजातियों के चयन का आधार:
1. पतले चावल वाली: खाने के लिए अधिक उपुयक्त होने के कारण इसका बाजार मूल्य अधिक होता है।
2. मोटे चावल वाली: पोहा उद्योग के लिये उपयुक्त होने से पोहा मिल के क्षेत्रों में अच्छा मूल्य मिलता है।
3. सुगंधित चावल वाली: उचित व्यापार का अभाव होने से बहुत कम खेती की जाती है। इसे शौकिया रूप से थोड़े क्षेत्रों में कहीं-कहीं बोई जाती है।
4. संकर प्रजातियॉ: बीज महंगा है, बीजों की पर्याप्त उपलब्धता नहीं है तथा उपयुक्त उन्नत काश्तकारी की जानकारी किसानों को नहीं है, अत: इनका क्षेत्रफल कम है।
5. रंगीन पत्ती वाली: जंगली धान के नियंत्रण/उन्मूलन हेतु इनकी आवश्यकता महसूस की जाती है, किंतु हर अवधि में पैदा होने वाले वांछित चावल की किस्मों की प्रजातियां उपलब्ध नहीं हैं, अत: कम प्रचलन में है।
मध्यम अवधि में पकने वाली प्रजातियॉ:
खेत की तैयारी: धान के लिये खेतों की तैयारी बुवाई की पद्धति के अनुसार निम्नानुसार करना चाहिए:
(1) लेही पद्धति के अलावा सीधे बीज बोने के लिए: रबी फसलों की कटाई के बाद खासतौर पर गर्मी के महीनों में खेत की गहरी जुताई तथा वर्षा प्रारंभ होते ही खेत तैयार करके बोनी करें। यदि रबी खेत पड़ती हो और गर्मियों की जुताई संभव न हो तो वर्षा शुरू होने के बाद जुताई करके खेत तैयार करें। प्रथम वर्षा के बाद निकले खरपतवारों की जुताई करके धान की बुवाई करने से शुरू की अवस्था में खरपतवारों का प्रकोप कम होता है। सूखी जमीन की तैयारी करके वर्षा के पूर्व ही धान बोने से फसल के साथ-साथ नींदा भी बहुत होते हैं। भारी जमीनों में जहॉ वर्षा के बाद खेत की तैयारी मुश्किल हो जाती है, वहॉ खेत से वर्षा के बाद उगे हुए नींदा को पैराक्वाट नींदा नाशक द्वारा नष्ट कर सीधे बीज की बोनी करने से समय व पैसा दोनों की बचत हो सकती है। किंतु यह कार्य पड़त जमीनों में संभव नहीं होगा। उगे हुए खरपतवार को नष्ट करने के लिये 1 लीटर पैराक्वाट नींदा नाशक 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें तथा छिड़काव के दूसरे या तीसरे दिन बाद सीधे बीज की बोनी करें। नींदा बड़े होने पर पैराक्वाट की मात्रा डेढ़ गुनी करें तथा इसके उपयोग के बाद खरपतवार सूख जाने पर (दवा डालने के 3-4 दिन बाद) पर बुवाई करें। यदि गोबर खाद का उपयोग कर रहे हो तो 5-10 टन प्रति हेक्टेयर इसे आखिरी जुताई या बखरनी के पूर्व जमीन में डालकर जुताई करें। बरखनी द्वारा इसे मिट्टी में अच्छी से मिलाएं।
(2) लेही पद्धति व रोपाई के लिये: इन पद्धतियों के लिये भी गर्मी के दिनों की गहरी जुताई लाभप्रद होती है। इन पद्धतियों में खेत की तैयारी के लिये, खेतों में वर्षा या सिंचाई का जल भरकर 2-3 बखरनी या पडलर चलाकर मचौआ करते हैं। इससे खेत की मिट्टी एवं पानी की गाढ़ी लेई बन जाती है। खेत के कूड़ा-करकट, डाले गये गोबर खाद/कम्पोस्ट/पौधों के अवशेष/हरी खाद तथा खरपतवारों के अवशेष आदि मचौआ तथा मिट्टी में मिल जाते हैं। इस प्रकार खेत को समतल करके लेही के लिये अंकुरित बीजों की बोनी तथा रोपाई के लिए पौधों की रोपनी करना चाहिये।
रोपणी में पौध तैयार करना
जितने रकबे में धान की रोपाई करना हो उसके 1/20 भाग में रोपणी बनाना चाहिये। इस रोपणी में निर्धारित क्षेत्र के लिये आवश्यक बीज इस प्रकार से क्रमश: बोनी करना चाहिए कि लगभग 3-4 सप्ताह के पौध रोपाई के लिये समय पर तैयार हो जायें। रोपणी के लिये 2-3 बार जुताई, बखरनी करके अच्छी तरह पहले खेत तैयार करना चाहिए। इसके बाद खेत में 1.5-2.0 मीटर चौड़ी पट्टियॉ बना लेना चाहिए तथा इनकी लम्बाई खेत के अनुसार कम अधिक हो सकती है। प्रत्येक पट्टी के बीच 30 सेमी. की नाली रहनी चाहिए। इन नालियों की मिट्टी नाली बनाते समय पट्टियॉ में डालने से पट्टियॉ ऊंची हो जाती है। ये नालियॉ जरूरत के अनुसार सिंचाई व जल निकास के लिये सहायक होती हैं। रोपणी में बीजों की बुवाई 8 से 10 सेमी. के अंतर से कतारों में करने से रख-रखाव तथा रोपणी हेतु पौध उखाड़ने में आसानी होती है। रोपणी में क्षेत्रफल के अनुसार 150 किलोग्राम नत्रजन, 100 किलोग्राम स्फुर तथा 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। एक-तिहाई नत्रजन तथा पूरी स्फुर व पोटाश की मात्रा बुवाई के समय देना चाहिये तथा शेष नत्रजन उगे हुये पौधों में 12-14 दिन बाद छिड़ककर देना चाहिये।
लेही के लिये बीज अंकुरित करना: लेही पद्धति से बोनी करने के लिये खेत की तैयरी के तुरंत बाद अंकुरित बीज उपलब्ध होना चाहिये। अत: लेही बोनी के लिये प्रस्तावित समय के 3-4 दिन पहले से ही बीज अंकुरित करने का कार्य शुरू कर देना चाहिए। इस हेतु निर्धारित बीज की मात्रा को रात्रि में पानी में 8-10 घंटे भिगोना चाहिये, फिर इन भीगे हुए बीजों का पानी निकालकर पानी निथार देना चाहिये। तदुपरांत इन बीजों को पक्की सूखी सतह पर बोरों से ठीक से ढंक देना चाहिये। ढकने के 24-30 घंटे के अंदर बीज अंकुरित हो जाता है। इसके बाद ढके गये बोरों को हटाकर बीज को छाया में फैला कर सुखाऐं। इन अंकुरित बीजों का इस्तेमाल 6-7 दिनों तक किया जा सकता है।
बीजोपचार: बीजों को खेत में या रोपणी में बुवाई करने के पूर्व उपचारित कर लेना चाहिए। सबसे पहले बीजों को नमक के घोल में डालें। इसके लिये 10 लीटर पानी में 1.6 किलोग्राम खाने का नमक डालकर घोल बनाएं। इस तरह के घोल में बीजों को डुबाने से हल्के बीज पानी में तैरने लगते हैं, उन्हें छान कर अलग कर लें, फिर नीचे के बीजों को पानी से निकाल कर दो बार साफ पानी से अच्छी तरह से धोयें तथा छाया में फैलाकर सुखाएं। सुखाए गये बीजों में 2 ग्राम मोनोसाल या केप्टान या थायरम़ + 2.5 ग्राम थायरम अथवा मेन्कोजेब बेविस्टन प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करके बोनी करें। बैक्टेरियल बीमारियों से बचाव के लिये बीजों को 0.05 प्रतिशत स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के घोल में डुबाकर उपचारित करना लाभप्रद होता है।
बुवाई का समय: वर्षा प्रारंभ होते ही धान की बुवाई का कार्य प्रारंभ कर देना चाहिए। जून मध्य से जुलाई प्रथम सप्ताह तक बोनी का समय सबसे उपयुक्त होता है। बुवाई में विलम्ब होने से उपज पर विपरीत प्रभाव पड्ता है। रोपाई के बीजों की बुवाई/रोपणी जून के प्रथम सप्ताह से ही सिंचाई के उपलब्ध स्थानों पर कर देनी चाहिये क्योंकि जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई मध्य तक की रोपाई से अच्छी पैदावार मिलती है। लेही विधि से धान के अंकुरण हेतु 6-7 दिनों का समय बच जाता है। अत: बीजू धान में देरी होने पर लेही विधि से बोनी करने से अधिक लाभ होगा।
बुवाई की विधियॉं:
छिटकवॉं विधि: इस विधि में अच्छी तरह से तैयार खेत में निर्धारित बीज की मात्रा छिटककर हल्की बखरनी द्वारा बीज को मिट्टी में ढक देते हैं।
2. कतारों की बोनी: अच्छी तरह से तैयार खेत में निर्धारित बीज की मात्रा नारी हल या दुफन या सीडड्रिल द्वारा 20 सेमी. की दूरी की कतारों में बोनी करना चाहिये।
3. बियासी विधि: इस विधि में छिटकवॉं या कतारों की बोनी के अनुसार निर्धारित बीज की सवा गुना मात्रा बोते हैं। इसके बाद लगभग एक महीने की खड़ी फसल में हल्का पानी भरकर हल्की जुताई कर देते हैं। जहां पौधे घने उगे हों जुताई के बाद उखड़े हुये घने पौधों को विरली स्थान पर लगा देना चाहिये। बियासी करने से खेत में खरपतवार कम हो जाते हैं तथा जल धारण क्षमता अच्छी हो जाती है। इससे फसल की बढ़वार अच्छी होती है।
4. लेही विधि: इस विधि में खेत में पानी भरकर मचौआ करना चाहिए, फिर समतल खेत में निर्धारित बीज की मात्रा छिटक देनी चाहिए। बोनी के दूसरे दिन बाद खेत में 8-10 सेमी. अधिक पानी नहीं रहना चाहिए तथा खेत की मेड़ बंधी रहना चाहिए। यदि तेज वर्षा होने का लक्षण हो तब बुवाई नहीं करना चाहिए।
5. रोपा विधि: सामान्य तौर पर 3-4 सप्ताह के पौध रोपाई के लिये उपयुक्त होते हैं तथा एक जगह पर 2-3 पौध लगाना पर्याप्त होता है। रोपाई में विलम्ब होने पर एक जगह पर 4-5 पौधे लगाना उचित होगा। जल्दी व मध्यम पकने वाली प्रजातियों के अधिक आयु के पौधे नहीं लगाना चाहिये। संकर प्रजातियों के 3 सप्ताह की पौध, एक पौध प्रति हिल के हिसाब से समय पर लगाने पर 20 सेमी. X 15 सेमी. तथा रोपाई में विलम्ब होने पर 15 सेमी. X 15 सेमी. की दूरी पर लगाना चाहिये।
खाद एवं उर्वरकों का उपयोग:
गोबर खाद या कम्पोस्ट:- धान की फसल में 5 से 10 टन/हेक्टेयर तक अच्छी सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट का उपयोग करने से महंगे उर्वरकों के उपयोग में बचत की जा सकती है। हर वर्ष इसकी पर्याप्त उपलब्धता न होने पर कम से कम एक वर्ष के अंतर से इसका उपयोग करना बहुत लाभप्रद होता है। इनके उपयोग से जमीन की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में सुधार होता है, जिससे मिट्टी की जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है। इसके उपयोग से प्रमुख पोषक तत्वों के साथ-साथ द्वितीयक एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की पूर्ति धीरे-धीरे होती रहती है।
हरी खाद का उपयोग: रोपाई वाली धान में हरी खाद के उपयोग में सरलता होती है, क्योंकि मचौआ करते समय इसे मिट्टी में आसानी से बिना अतिरिक्त व्यय के मिलाया जा सकता है। हरी खाद के लिये सनई का लगभग 25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रोपाई के एक महीने पहले बोना चाहिए। लगभग एक महीने की खड़ी सनई की फसल को खेत में मचौआ करते समय मिला देना चाहिए। यह 3-4 दिनों में सड़ जाती है। यदि खेत खाली न हो तो पानी के साधन से अगल-बगल के खेतों में समय से लगायें तथा लगभग एक महीने की हरी फसल काट कर धान वाले खेत में फैला दें और मचौआ करके मिट्टी में मिलाएं। ऐसा करने से लगभग 50-60 किलोग्राम/हेक्टेयर उर्वरकों की बचत होगी। इसका उपयोग गोबर खाद या कम्पोस्ट से भी अधिक लाभकारी होता है। बीजू धान में हर चौथी या पांचवी धान की कतार के बाद सनई बोएं तथा एक महीने की सनई का पौधा हो जाने पर, इसे कतार में ही ताईचुंग गुरमा या हेण्ड हो चलाकर मिट्टी में मिला दें। ऐसा करने से लगभग एक चौथाई उर्वरकों की बचत होती है तथा निंदाई में भी सुविधा होगी।
जैव उर्वरकों का उपयोग: कतारों की बोनी वाली धान में 5000 ग्राम/हेक्टेयर प्रत्येक एजोटोबेक्टर आर.पी.एस.बी. जीवाणु उर्वरक का उपयोग करने से लगभग 15 किलोग्राम/हेक्टेयर नत्रजन और स्फुर उर्वरक बचाएं जा सकते हैं। इन दोनों जीवाणु उर्वरकों को 50 किलोग्राम/हेक्टेयर सूखी सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई करते समय कूड़ों में डालने से इनका उचित लाभ मिलता है।
बीजू धान में उगने के 20 दिनों तथा रोपाई धान में रोपाई के 20 दिनों की अवस्था में, 15 किलोग्राम/हेक्टेयर हरी नीली काई का भुरकाव करने से लगभग 20 किलोग्राम/हेक्टेयर नत्रजन उर्वरक की बचत की जा सकती है। ध्यान रहे, काई का भुरकाव करते समय खेत में पर्याप्त नमी या हल्की पानी की सतह (5+2 सेमी.) रहनी चाहिये।
उर्वरकों का उपयोग: प्रदेश के हर क्षेत्रों में प्राय: नत्रजन, स्फुर व पोटाश उर्वरकों के उपयोग से धान की फसल में पर्याप्त वृद्धि होती है। धान की फसल में इन उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण बोई जाने वाली प्रजाति व भूमि के आधार पर तालिका में बताये अनुसार करना चाहिए।
प्रदेश के हर क्षेत्रों में प्राय: नत्रजन, स्फुर व पोटाश उर्वरकों के उपयोग से धान की फसल में पर्याप्त वृद्धि होती है। धान की फसल में इन उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण बोई जाने वाली प्रजाति व भूमि के आधार पर तालिका में बताये अनुसार करना चाहिए।
द्वितीयक एवं सूक्ष्म पोषी तत्वों का उपयोग: जहां पर लगातार उर्वरकों के उपयोग से धान व अन्य फसलों का अच्छा उत्पादन लिया जा रहा हो एवं सघन खेती (द्वि फसली/बहुफसली) पद्धति अपनाई जा रही हो, वहां भूमि में जस्ता की कमी हो रही है। इसी तरह लगातार गंधक रहित उर्वरकों जैसे डी.ए.पी. तथा यूरिया के बढ़ते उपयोग से गंधक की कमी खेतों में हो रही है। अत: 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट/हेक्टेयर बुवाई के समय प्रति वर्ष या एक वर्ष के अंतराल से देना काफी फायदेमंद रहता है।
उपरोक्त मात्रा प्रयोगों के परिणामों पर आधारित है, किंतु भूमि परीक्षण द्वारा उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण वांछित उत्पादन के लिये किया जाना लाभप्रद होगा।
स्फुर, पोटाश और जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा बीजू धान में बुवाई तथा रोपाई वाली धान में रोपाई के समय पर देना जरूरी है, किंतु धान की फसल में नत्रजन यदि बुवाई के समय न देकर बुवाई के 15-20 दिनों बाद निंदाई करके या रोपाई के 6-7 दिनों बाद दें तो नत्रजन के उपयोग की क्षमता बढ़ेगी। यदि बीजू धान में बुवाई के तुरंत बाद नींदानाशी का उपयोग कर रहे हैं तो बुवाई के समय निर्धारित मात्रा की एक तिहाई नत्रजन बीज बोते समय दे सकते हैं। प्रभावी उपयोग क्षमता के लिये नत्रजन की मात्रा का विभाजन करके फसल की विभिन्न अवस्थाओं में प्रजातियों के अनुसार निम्न तरह से करना चाहिये।
नत्रजन उर्वरकों की उपयोग क्षमता में सुधार:
1. नत्रजन युक्त उर्वरकों का उपयोग बीज बोते समय या रोपा लगाते समय करने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा। बीजू धान में बोनी के 15-20 दिनों की अवस्था पर निंदाई करके इनका उपयोग करें। रोपाई धान में रोपाई के 6-7 दिनों पर प्रथम बार नत्रजन उर्वरक दें।
2. नत्रजन का उपयोग कई बार में बताई गई तालिका अनुसार करें।
3. नत्रजन उर्वरक धान में पानी द्वारा रिसकर नीचे चले जाते हैं। अत: इन पर नीम की खली की पर्त चढ़ाकर उपयोग करने से इनकी उपयोग क्षमता बढ़ती है। 100 किलोग्राम में 20 किलोग्राम नीम की खली का बारीक चूर्ण मिलाना उचित होगा। खली का चूर्ण मिलाने के लिये यूरिया में 1 लीटर मिट्टी के तेल का छिड़काव करने से खली यूरिया पर चिपक जाती है। नीम की खली चिपकी हुई यूरिया का नुकसान नहीं होता है। इसी प्रकार नत्रजन उर्वरकों में कोलतार की पर्त चढ़ा कर केवल एक ही बार में पूरी मात्रा दी जा सकती है, जो पौधों को आवश्यकतानुसार पूरे जीवनकाल में मिलती रहती है। इसके लिये 100 किलोग्राम यूरिया में 5 किलोग्राम कोलतार, 1.5 लीटर मिट्टी के तेल के सहारे चिपकाना चाहिये।
4. यूरिया के बड़े आकार की गोलियॉं (यूरिया सुपर ग्रेन्यूल्स) कतारों में रोपाई की गई धान में, एक कतार के अंतराल पर तथा कतार में एक पौधे के अंतराल से बुवाई के 5-6 दिन बाद जमीन में 5-6 सेमी. गहराई में स्थापित करने से नत्रजन की उपयोग क्षमता, छिटककर दी गई नत्रजन से दुगनी की जा सकती है।
नत्रजन उर्वरकों के उपयोग में सावधानियॉं
1. सूखे खेतों में उर्वरक न डालें।
2. खरपतवार से ग्रस्त फसल में उर्वरक उनकी निंदाई करने के बाद ही डालें।
3. उर्वरक डालते समय खेत में 4-5 सेमी. तक पानी रह सकता है। नम खेत में ही उर्वरक डालें। अधिक पानी रहने पर पानी निकालने के बाद उर्वरक डालें। उर्वरक डालते समय तथा उसके बाद खेत की मेंड़ बंधी रहनी चाहिये।
4. वर्षा के बाद गीले पौधों पर नत्रजन उर्वरक न डालें। यह ध्यान रखें कि यदि जल्दी पानी बरसने की उम्मीद हो, तब भी खेत में उर्वरक न डालें।
उतेरा फसल पद्धति में उर्वरकों का उपयोग: प्रदेश के कई जिलों जैसे सिवनी, डिण्डोरी, मण्डला, बालाघाट व जबलपुर के असिंचित क्षेत्रों के कुछ इलाकों में धान की खड़ी फसल में कटाई के 15-20 दिन पूर्व उतेरा फसल के रूप में तिवड़ा, बटरी, अलसी, मसूर व उड़द की बुवाई की जाती है। जहां पर यह पद्धति अपनाई जाती है, वहां धान की फसल में निर्धारित उर्वरकों के अलावा 20 किलोग्राम स्फुर प्रति हेक्टेयर की अतिरिक्त मात्रा का उपयोग करना काफी लाभप्रद होता है।
नींदा नियंत्रण: धान की फसल में बीज उगने या पौधा लगाने से लेकर कटाई तक हर अवस्था में कई प्रकार के खरपतवार उगते हैं। सॉवा, टोरी वट्टा, कनकी, मोथा, बदौर, जलदूब, जलखुम्बी, मृंगराज, विल्जा व जंगली धान जैसे खरपतवार इतनी अधिक तादाद में उगते हैं कि कभी-कभी धान की फसल काटने लायक ही नहीं रह जाती है। हर महीने में उगने वाले नींदा अलग-अलग है, किंतु सॉवा, मोथा, जलदूव, जंगली धान व कनकी का प्रयोग तो पूरे फसल काल में खतरनाक रहता है। सॉवा, टोरी, बट्टा और जंगली धान की निंदाई के दौरान फसल के पौधों को पहचानना भी दुष्कर हो जाता है। धान की बुवाई अलग-अलग ढंग से अलग-अलग स्थितियों में की जाती है तथा जल्दी पकने वाली किस्मों से लेकर लंबी अवधि की प्रजातियॉं उगाई जाती है। अत: इनमें निंदा नियंत्रण के उपाय भी अलग-अलग ढंग से निम्नानुसार अपनाना चाहिये।
(अ) बीजू छिटकवॉ धान जिसमें बियासी नहीं की जाती हो:
1. बुवाई के तुरंत बाद नई जमीन में या सूखी जमीन की बोनी में पानी बरसने के तुरंत बाद ब्यूटाक्लोर 2.5 किलोग्राम/हेक्टेयर सक्रिय तत्व का छिड़काव 500 लीटर पानी में घोलकर करने से लगभग 20-25 दिनों तक निंदा नहीं उगते हैं।
2. खरपतवार उग आने के बाद जुताई करके, खेत तैयार करके बुवाई करने से फसल में लगभग 10-15 दिनों तक खरपतवार नहीं रहते हैं।
3. खड़ी फसल में दो बार 20-25 दिनों और 40-45 दिनों की अवस्था पर निंदाई करें।
4. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार की अधिकता होने पर 2, 4-डी नामक नींदानाशी 0.5 किग्रा./हेक्टेयर का छिड़काव लगभग 25 से 30 दिनों तक की फसल पर करें। यदि कोई और फसल धान के साथ हो तब यह छिड़काव न करें।
(ब) बीज छिटकवा धान, जहॉ बियासी की जाती हो: जहॉं बियासी अपनाई जाती हो, वहॉं बियासी करने के बाद 7 दिनों के अंदर निंदाई व चलाई किया जाना चाहिये। दूसरी निंदाई 25-30 दिनों पर करनी चाहिये। बियासी के लिये समय पर पानी उपलब्ध होने पर निंदाई करना चाहिये। बोनी के 40-45 दिनों बाद बियासी नहीं करना चाहिये।
(स) कतारों में बोई गई बीजू धान में: ‘अ’ में बताए गये तरीके से नींदा नियंत्रण करें। इसके अलावा कतारों के बीच ताइचुंग गुरमा लगभग 15 दिनों के अंतराल से 50 दिनों तक फसल में कतारों के बीच चलाने से निंदाई का व्यय बहुत कम हो जाता है। निंदाई से निकाले गये खरपतवारों की पलवार कतारों के बीच इस प्रकार बिछाएं कि उनकी जड़ें जमीन के संपर्क में न आने पायें। ऐसा करने से नये खरपतवार नहीं उग पाते, नमी का संरक्षण होता है और खेत में पोषक तत्वों की वृद्धि होती है।
(द) रोपाई धान में:
1. रोपाई के बाद 6-7 दिनों तक ब्यूटाक्लोर 2 से 2.50 किलोग्राम/हेक्टेयर का छिड़काव करने से लगभग 25-30 दिनों तक खरपतवार का प्रकोप कम होता है।
2. खड़ी फसल में रोपाई के 30 और 45 दिनों पर करने से खरपतवार पर नियंत्रण हो जाता है।
3. कतारों की रोपाई में कतारों के बीच ताइचुंग गुरमा चलाने से खरपतवार का प्रभावी नियंत्रण होता है।
4. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार उगने पर, 2,4-डी नींदा नाशी 0.5 किलोग्राम/हेक्टेयर का छिड़काव लगभग एक माह की फसल पर करने से इनका नियंत्रण हो जाता है।
(ई) जहॉं पर जंगली धान का प्रकोप हो: जंगली धान के प्रकोप वाले खेतों में, बैंगनी पत्ती वाली धान की प्रजातियॉं जैसे श्यामला, आर. 470 (नाग केशर व जलकेशर स्थानीय प्रजातियॉं) उगाने से निंदाई में सुविधा होती है।
जल प्रबंधन:
धान अधिक पानी चाहने वाली फसल है। किसी भी अवस्था में पानी की कमी होने पर उपज में गिरावट आती है, किंतु कंसे निकलते समय और दाना भरते समय पानी की कमी से उपज में बहुत गिरावट होती है। बालें निकलते समय और दाना भरते समय भी पानी की कमी से उपज में बहुत गिरावट होती है। लगातार खेत में पानी भरे रखने से यद्यपि खरपतवार कम उगते हैं फिर भी उपज पर बुरा असर पड़ता है। खेत से भरा हुआ पानी 3-4 दिनों के लिये निकालकर फिर दूसरी पानी भरते रहने का क्रम बनाना फसल की उपज के लिये सर्वोत्तम जल प्रबंधन है। प्रजातियों के अनुसार धान की फसल की विभिन्न अवस्थाओं पर खेत में पानी के सतह की ऊंचाई निम्नानुसार सुनिश्चित करना चाहिये।
पौध संरक्षण:
(अ) कीट: धान की सभी अवस्थाओं में किसी न किसी विनाशकारी कीटों या रोगों के प्रकोप की आशंका बनी रहती है, अत: हमेशा खेत की निगरानी करते रहना चाहिये तथा इनका प्रकोप दिखने पर कृषि परामर्श केन्द्रों से सम्पर्क करके उचति पौध संरक्षण उपाय अपनाना चाहिये। किसी भी कीट या रोग के प्रकोप को नजर अंदाज नहीं करना चाहिये।
हानिकारक कीटों का सर्वेक्षण:
1. खेत में हानिकारक कीटों के प्रकोप तथा जैव नियंत्रण के साधनों परजीवी एवं परभक्षी मित्र कीट की संख्या के सही आंकलन हेतु फसल की बुवाई एवं रोपाई से लेकर कंसे बनने तक प्रत्येक 7 दिनों के अंतराल पर नियमित रूप से फसल निरीक्षण करें।
2. निरीक्षण के साथ ही नाशी कीटों एवं मित्र कीटों की संख्या के आंकलन हेतु जाल का भी उपयोग करें।
3. प्रकाश के प्रति आकर्षित होने वाले कीटों के निरीक्षण हेतु 125 वाट मरक्यूरी वेपर बल्व युक्त प्रकाश प्रपंच का प्रति रात्रि में 2 घंटे लगातार उपयोग करें। (7 बजे से 9 बजे तक)
आर्थिक क्षति स्तर (ई.टी.एल.)
समन्वित नाशी कीट प्रबंधन के उपाय:
(अ) सस्य क्रियाओं द्वारा:
1. ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई- ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई, मेड़ें की सफाई तथा पिछली फसल के अवशेषों को नष्ट करने से तना छेदक, कीट की इल्लियॉं एवं शंखियॉं इत्यादि भूमि से ऊपर आकार तेज धूप, अधिक तापमान एवं पक्षियों द्वारा नष्ट हो जाते हैं।
2. बुवाई/रोपाई का समय- शीघ्र एवं उचित समय पर बुवाई/रोपाई करना आवश्यक है। नर्सरी में बीजों की बुवाई जून माह में तथा रोपाई जुलाई माह तक पूर्ण कर लेने पर नाशीकीटों का प्रकोप कम किया जा सकता है।
3. रोपों का उपचार- रोपाई से पूर्व रोपों की जड़ों को क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. (200 मि.ली. दवा 200 लीटर पानी) के घोल में डुबाकर प्रति एकड़ की दर से उपचारित करना चाहिये।
4. स्वस्थ बीज, प्रतिरोधक (प्रकोप सहने योग्य) जातियों का चुनाव करें जैसे
(ब) यांत्रिक क्रियाओं द्वारा:
1. हानिकारक कीटों के अण्ड समूह एवं इल्लियों को एकत्रित कर नष्ट करें।
2. पौधे के कीट प्रकोपित भागों को नष्ट करें।
3. रोपों की पत्तियों के अग्र सिरे को रोपाई पूर्व काट कर अलग कर दें।
4. मरक्यूरी वेपर 125 वाट बल्वयुक्त प्रकाश प्रपंच को प्रति रात्रि लगभग 2 घंटे (7 से 9 बजे) चलायें।
5. फैरोमोन ट्रेप प्रपंच का उपयोग करें।
(स) जैविक क्रियाओं द्वारा:
1. संरक्षण: निम्नलिखित जैविक कीट नियंत्रण साधनों को संरक्षित कर जैव नियंत्रण को प्रोत्साहित किया जा सकता है। जैसे- स्पाइडर (मकड़ी), स्टेफेलिनिड बीटल, ड्रेगन फ्लाई, मिरिड बग, मिनोचिलस, ट्राइकोग्रामा कोटेसिया (अण्ड परजीवी), प्लेटीगेस्टर, नियानस्टेट्स, हेपिलोगोनाटोपस, एपेन्टेलिस, टिलेनोमस, ट्रेस्टिकस इत्यादि।
2. वृद्धि: धान की तना छेदक इल्लियों के नियंत्रण हेतु ट्राइकोग्रामा जेपोनिकम अण्ड परजीवी के 50,000 अण्डे प्रति हेक्टेयर प्रति सप्ताह की दर से छह सप्ताह तक रोपाई के 30 दिन बाद से खेत में छोड़ना प्रारंभ करें।
(द) रासायनिक कीटनाशकों द्वारा: समन्वित नाशी जीव प्रबंधन के अनुसार रासायनिक कीटनाशकों का प्रकोप आवश्यकतानुसार, सुरक्षित एवं अंतिम उपाय के रूप में ही करें। पत्ती भक्षक एवं तना छेदक हेतु मेलाथियान 50 ई.सी. 500 मि.ली./हेक्टेयर या इंडोसल्फान 35 ई. सी. 1000 मि.ली./हेक्टेयर या साइपरमेथिरिन 25 ई.सी. 250 मि.ली./हेक्टेयर या मिथोमिल 40 एस.पी. 1000 ग्राम/हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। रस चूसक कीटों हेतु मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. 1000 मि.ली./हेक्टेयर या ट्राइजोफास 40 ई.सी. 1000 मि.ली./हेक्टेयर या डाइमिथोएट 30 ई.सी. 500 मि.ली./हेक्टेयर या कारटप हाइड्रोक्लोराइड 50 एस.पी. 1000 मि.ली./हेक्टेयर या फोरेट 10 जी 15 किग्रा./हेक्टेयर की दर से उपरोक्त में से किसी एक दवा का उपयोग करें।
(क) चूहों का नियंत्रण: इनके नियंत्रण के लिये जिंक फास्फाइड 2 प्रतिशत दवा का उपयोग करें। इसके लिए आवश्यकतानुसार जहरीला चारा बनायें। 100 ग्राम जहरीला चारा बनाने के लिए किसी एक प्रकार के अनाज के दाने को 3-4 घंटे पानी में फुलाकर तथा पानी निथार कर उसमें किसी भी खाने के तेल को अच्छी तरह मिलायें, तत्पश्चात उसमें 2.5 ग्राम जिंक फास्फाइड मिलाऐं। चारे को चूहों के बिलों में डाल दें तथा बिलों को बंद कर दें। जहरीला चारा देने से पहले चूहों को सादे भोजन से एक या दो दिन लहटाना अच्छा होता है।
(ब) रोग: धान की प्रमुख बीमारियों के नाम, कवक उनके लक्षण, पौधों की अवस्था, जिसमें आक्रमण होता है, निम्नानुसार है:
1. झुलसा रोग:
आक्रमण: पौधे से लेकर दाने बनने तक की अवस्था तक इस रोग का आक्रमण होता है। इस रोग का प्रभाव मुख्यत: पत्तियों पर प्रकट होता है। इस रोग से पत्तियों, तने की गॉंठों, बाली पर ऑंख के आकार के धब्बे बनते हैं। धब्बे बीच में राख के रंग के तथा किनारों पर गहरे भूरे या लालिमा लिये होते हैं। कई धब्बे मिलकर सफेद रंग के बड़े धब्बे बना लेते हैं जिससे पौधा झुलस जाता है। गॉंठों पर या बालियों के आधार पर प्रकोप होने पर पौधा हल्की हवा से ही गॉंठों पर से तथा बाली के आधार से टूट जाता है।
रोग की सुप्त अवस्था/फैलाव: यह रोग बीज जनित है पर बाद में रूग्न पौधों, नीदों तथा हवा द्वारा फैलता है।
नियंत्रण:
1. स्वच्छ खेती करना आवश्यक है। खेत में पड़े पुराने पौध अवशेष को भी नष्ट करें।
2. रोग रोधी किस्मों का चयन करें। जैसे आदित्य, तुलसी, जया, बाला, पंकज, साबरमती, गरिमा, प्रगति इत्यादि।
3. बीजोपचार करें- बीजोपचार कार्बेन्डाजिम अथवा बेनोमायल- 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की मात्रा से घोल बनाकर 6 से 12 घंटे तक बीज को डुबोयें, तत्पश्चात छाया में बीज को सुखाकर बोनी करें।
4. खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम या हिनोसान 1 मि.ली. या मेंक्कोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिये। दैहिक दवायें अधिक प्रभावी है।
धान की जातियों को क्षेत्रानुसार चुनाव करने से इस रोग से बचा जा सकता है।
2. भूरा धब्बा या पर्णचित्ती रोग:
आक्रमण: इस रोग का आक्रमण भी पौध अवस्था से दाने बनने की अवस्था तक होता है।
लक्षण: मुख्य रूप से यह रोग पत्तियों, पर्णछन्द तथा दानों पर आक्रमण करता है। पत्तियों पर गोल अंडाकर, आयताकार छोटे भूरे धब्बे बनते हैं जिससे पत्तियॉं झुलस जाती हैं तथा पूरा का पूरा पौधा सूखकर मर जाता है। दाने पर भूरे रंग के धब्बे बनते हैं तथा दाने हल्के रह जाते हैं।
नियंत्रण: यह रोग बीज जनित है परंतु खरपतवार तथा बाद में रूग्न पौधों से तथा हवा से भी इस रोग का फैलाव होता है। अत: खेत में पड़े पुराने पौध अवशेष को नष्ट करें। रोग की रोकथाम के लिये झोंका रोग की विधि से बीजोपचार करें। खड़ी फसल पर लक्षण दिखते ही मेन्कोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें तथा निरोधक जातियों जैसे- क्रांति, आई.आर.-36 की बुवाई करें।
3. खैरा रोग: यह रोग भूमि में जस्ते की कमी के कारण होता है।
आक्रमण: पौधे से लेकर बाढ़ की अवस्था में रोग के लक्षण दिखाई देते हैं। प्रदेश के अधिकांश जिलों में जिंक की कमी पाई जाती है।
लक्षण: जस्ते की कमी वाली खेत में पौध रोपण के 2 सप्ताह के बाद ही पुरानी पत्तियों के आधार भाग में हल्के पीले रंग के धब्बे बनते हैं, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं, जिससे पौधा बौना रह जाता है तथा कल्ले कम निकलते हैं एवं जड़ें भी कम बनती हैं तथा भूरी रंग की हो जाती है।
नियंत्रण:
1. खैरा रोग के नियंत्रण के लिये 20-25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर बुवाई पूर्व उपयोग करें।
2. पौध रोपण से पहले पौधे को 0.4 प्रतिशत जिंक सल्फेट के घोल में 12 घंटे तक डुबाकर रोपण करें।
3. खड़ी फसल में 1000 लीटर पानी में 5 किलोग्राम जिंक सल्फेट तथा 2.5 किग्रा. बिना बुझा हुआ चूने के घोल का मिश्रण बनाकर उसमें 2 किलोग्राम यूरिया मिलाकर छिड़काव करने से रोग का निदान तथा फसल की बढ़वार में वृद्धि होती है।
4. कुछ जातियों में खैरा रोग का प्रकोप कम होता है: जैसे- रतना, अन्नपूर्णा, कावेरी, साबरमती- कुछ में मध्यम- जैसे- आई.आर. 8, पदमा, बाला, आई.आर. 20, कृष्णा तथा साकेत तथा कुछ में अधिक जैसे- जया, पंकज, सफरी इत्यादि। अत: क्षेत्र के अनुसार जाति का चयन करें।
4. शाकाणु पर्ण रोग:
लक्षण: इसका आक्रमण बाढ् की अवस्था में होता है। इस रोग में पौधे की नई अवस्था में नसों के बीच में पारदर्शकता लिये हुए लंबी-लंबी धारियॉं पड़ जाती हैं, जो बाद में कत्थाई रंग ले लेती हैं।
रोग की सुप्त अवस्था/फैलाव: झुलसन रोग की तरह ही इस रोग का फैलाव होता है।
नियंत्रण:
1. शाकाणु झुलसन की तरह बीजोपचार करें।
2. शाकाणु पर्णधारी रोग के लिये आई.आर. 20, श्रांगृवि और कृष्णा, जातियॉं रोग सहिष्णु पाई गई हैं।
5. दाने का कंड़वा:
आक्रमण: दाने बनने की अवस्था में।
लक्षण: बाली के 3-4 दानें में कोयले जैसा काला पाउडर भरा होता है, जो या तो दाने के फट जाने से बाहर दिखाई देता है या बंद रहने पर सामान्य दाने जैसा ही रहता है, परंतु ऐसे दाने देर से पकते हैं तथा हरे रहते हैं। सूर्य की धूप निकलने से पहले देखने पर संक्रमित दानों का काला चूर्ण स्पष्ट दिखाई देता है।
रोग की सुप्त अवस्था/फैलाव: रोगाणु एक वर्ष से अधिक सक्रिय रहते हैं।
नियंत्रण: इस रोग का प्रकोप अभी तक तीव्र नहीं पाया गया है। अत: उपचार की आवश्यकता नहीं है, परंतु अधिक नत्रजन देने से रोग अधिक बढ़ता है। अत: खेत में संतुलित खाद का प्रयोग करना चाहिये।
6. शाकाणु झुलसन रोग:
आक्रमण: बढ़वार की किसी भी अवस्था में इस रोग का आक्रमण हो सकता है।
लक्षण: इस रोग में पत्तियों पर जलसिक्त पार भाषक धब्बे प्रकट होते हैं, जो बाद में सिरे तथा किनारे से सूखने लगती हैं, सिरे और किनारे टेढ़े-मेढ़े अनियमित होते हैं तथा पौधे झुलसे हुये से लगते हैं।
रोग की सुप्त अवस्था/फैलाव: रोग के जीवाणु मिट्टी और बीज में रहते हैं। इसका फैलाव रोग ग्रसित पौधों के संपर्क तथा सिंचाई के पानी से होता है।
नियंत्रण:
1. स्वच्छ खेती को प्राथमिकता देना आवश्यक है। खेत में पानी की निकासी करें।
2. बोने से पूर्व 6 ग्राम स्ट्रेप्टोसाकलिन दवा को 20 लीटर पानी के घोल से बीज उपचारित करें।
3. खड़ी फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देने पर उपरोक्त दवा के घोल का छिड़काव करें अथवा 1 ग्राम ताम्रयुक्त दवा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
4. शाकाणु प्रतिरोधक जातियों का उपयोग करें- जैसे आई.आर. 20, रतना, जया, बाला, कृष्णा इत्यादि।
कटाई-गहाई एवं भण्डारण: पूरी तरह से पकी फसल की कटाई करें। पकने के पहले कटाई करने से दाने पोचे हो जाते हैं। कटाई में विलम्ब करने से दाने झड़ते हैं तथा चावल अधिक टूटता है। फसल को चूहों से भी बचाना बहुत जरूरी होता है। कटाई के बाद फसल को 1-2 दिन खेत में सुखाने के बाद खलियान में ले जाना चाहिए। खलियान में ठीक से सुखाने के बाद गहाई करनी चाहिए। गहाई के बाद उड़ावनी करके साफ दाना इकट्ठा करना चाहिये और अच्छी तरह धूप में सुखाने के बाद भण्डारण करना चाहिये।