ज्वार
ज्वार विश्व की एक मोटे अनाज वाली महत्वपूर्ण फसल है। वर्षा आधारित कृषि के लिये ज्वार सबसे उपयुक्त फसल है। ज्वार फसल का दोहरा लाभ मिलता है। मानव आहार के साथ-साथ पशु आहार के रूप में इसकी अच्छी खपत होती है। ज्वार की फसल कम वर्षा (450-500) में भी अच्छा उपज दे सकती है। एक ओर जहां ज्वार सूखे का सक्षमता से सामना कर सकती है वहीं कुछ समय के लिये भूमि में जलमग्नता को भी सहन कर सकती है। ज्वार का पौधा अन्य अनाज वाली फसलों की अपेक्षा कम प्रकाश संश्लेशन एवं प्रति इकाई समय में अधिक शुष्क पदार्थ का निर्माण करता है। ज्वार की पानी उपयोग करने की क्षमता भी अन्य अनाज वाली फसलों की तुलना में अधिक है। वर्तमान में मध्य प्रदेश में ज्वार की खेती लगभग 5 लाख हेक्टयर भूमि में की जा रही है। मध्य प्रदेश में ज्वार का क्षेत्रफल विगत वर्षों से कम होने के बावजूद राज्य की औसत उपज राष्ट्र की औसत उपज से 27 प्रतिशत अधिक है। मध्यप्रदेश में खरगोन, खण्डवा, बड़वानी, छिंदवाड़ा, बैतुल, राजगढ़ एवं गुना जिलों में मुख्यत: इसकी खेती की जाती है। इसके अलावा ज्वार के दाने का उपयोग उच्च गुणवत्ता वाला अल्कोहल बनाने में किया जा रहा हैं।
ज्वार की उपज कम होने के निम्न कारण है:-
1. स्थानीय जातियॉं का बोना
2. समय पर बुआई नहीं करना
3. असंतुलित उर्वरकों का प्रयोग
4. पौध संख्या अधिक होना
5. उचित पौध संरक्षण का अभाव
6. फसल की कार्यकीय परिपक्वता पर भुट्टे की कटाई न करना
भूमि का चुनाव: मटियार, दोमट या मध्यम गहरी भूमि, पर्याप्त जीवाश्म तथा भूमि का 6.0 से 8.0 पी.एच. सर्वाधिक उपयुक्त पाया गया है। खेत में पानी का निकास अच्छा होना चाहिये।
भूमि की तैयारी: गर्मी के समय खेत की गहरी जुताई भूमि उर्वरकता, खरपतवार, रोग एवं कीट नियंत्रण की दृष्टि से आवश्यक है। खेत को ट्रैक्टर से चलने वाले कल्टीवेटर या बैल जोड़ी से चलने वाले बखर से जुताई कर जमीन को अच्छी तरह भुरभुरी कर पाटा चलाकर बोनी हेतु तैयार करना चाहिए।
अनुसंशित किस्में: क्षेत्र के लिए उपयुक्त अनुशंसित किस्मों का चुनाव करें। क्षेत्र के लिए अनुमोदित किस्मों का बीज ही बोयें। जहां तक संभव हो प्रमाणित संस्थाओं के ही बीज का उपयोग करें या उन्नत किस्मों का स्वयं का बनाया हुआ बीज ही बोयें।
1. संकर किस्में: जिसका बीज दो अंत:प्रजात किस्मों के संकरण से बनाया जाता है और बोने के लिये प्रति वर्ष नया संकर बीज उपयोग में लाना आवश्यक है। संकर जातियॉं सी.एस.एच.14, सी.एस.एच.16, सी.एस.एच.17 तथा सी.एस.एच.18 किसानों के बोनी के लिये उपयुक्त हैं।
2. विपुल उत्पादन देने वाली किस्में: इन किस्मों का विकास दो अथवा अधिक किस्मों से संकरण के बाद ही पीढि़यों से चयनित श्रेष्ठ पौधों से किया जाता है। इन किस्मों के खेतों से किसान स्वयं सही लक्षण वाले 3000-4000 भूट्टो को (अथवा आवश्यकतानुसार) छांट कर रखें और अगले वर्ष बीज के रूप में उपयोग में लायें। प्रति वर्ष नया बीज खरीदना आवश्यक नहीं है।
मध्य प्रदेश में विपुल उत्पादन देने वाली जातियां जैसे जवाहर ज्वार 741, जवाहर ज्वार 938, जवाहर ज्वार 1022, जवाहर ज्वार 1041 तथा सी.एस.वी. 15 उपयुक्त हैं। वर्षा 2004 में ज्वार परियोजना, कृषि महाविद्यालय, इंदौर से विकसित जवाहर ज्वार 1022 कम वर्षा एवं हल्की भूमि वाले क्षेत्र जैसे निमाड़ व झाबुआ जिले के लिये विशेष रूप से उपयुक्त है। उपरोक्त सभी जातियों के तने तथा पत्तियों दोनों की कार्यकीय परिपक्वता पर भी हरी बनी रहती हैं। इससे कडबी की गुणवत्ता अच्छी रहती है।
बीज की मात्रा: एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिये 8 से 10 किलो ग्राम स्वस्थ एवं 70 से 75 प्रतिशत अंकूरण क्षमता वाला बीज पर्याप्त होता है।
बीजोपचार एवं कल्चर का उपयोग: फफूंद नाशक दवा थायरम 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। फफूंद नाशक दवा से उपचार के उपरांत एवं बोनी के पूर्व 10 ग्राम एजोस्प्रिलियम एवं पी.एस.बी. कल्चर का उपयोग प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से अच्छी तरह मिलाकर करें। कल्चर के उपयोग से ज्वार की उपज में आंशिक वृद्धि पाई गई है। उपचारित बीज को धूप से बचाकर रखें तथा बुवाई शीघ्रता से करें।
अधिक उत्पादन प्राप्त करने हेतु सही पौध संख्या: ज्वार की विपुल उत्पादन देने वाली जातियों तथा संकर जातियों में पौध संख्या 1,80,000 (एक लाख अस्सी हजार) प्रति हेक्टेयर रखने की अनुसंशा की जाती है। बीज को कतारों में 45 सेमी. दूरी पर बोयें। पौधों से पौधों का अंतर 12 सेमी. रखें। द्विउद्द्धेशीय (दाना एवं कड़बी) वाली नई किस्मों जैसे जवाहर ज्वार 1022, जवाहर ज्वार 1041 एवं सी.एच.एस. 18 की पौध संख्या दो लाख दस हजार प्रति हेक्टेयर रखना चाहिए। यह पौध संख्या फसल को कतारों से कतारों की दूरी 45 सेमी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. पर रखकर प्राप्त की जा सकती है।
अंकुरण के बाद पौधे जब 8 से 10 दिन के हो तब विरलन करते समय कतारों में 10 से 12 सेमी. की दूरी पर एक स्वस्थ पौधा रखें। शेष सभी पौधे निकाल दें। उसके पश्चात यदि हल्की वर्षा को रही हो तो इस समय जहां पौध नहीं हो वहां पर दूसरा पौधा रोप दें। सही जातियों का चुनाव सही समय पर बोनी, उचित समय पर पौध विरलन तथा सही पौध संख्या रखना कम लागत खर्च से अधिक उत्पादन प्राप्त करने की तकनीक है।
खाद एवं उर्वरक: ज्वार की जो फसल 55-60 क्विंटल दानों की तथा 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर कड़बी की उपज देती है। ज्वार भूमि से 130-150 किलोग्राम नत्रजन, 50-55 किलोग्राम स्फुर तथा 100-130 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर लेती है। ज्वार की फसल में एक किलोग्राम नत्रजन देने से नई उन्नत जातियों में 15 से 16 किलोग्राम दाना मिलता है। अच्छी उपज के लिये 80 किलो ग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम स्फुर तथा 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। बोनी के समय नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर और पोटाश की पूरी मात्रा बीज के नीचे दें। नत्रजन की शेष मात्रा जब फसल 30-35 दिनों की हो जाये, यानि पौधे जब घुटनों की ऊंचाई के हो तब पौधों से लगभग 10-12 सेमी. की दूरी पर साईड ड्रेसिंग के रूप में देकर डोरा चलाकर भूमि में मिला दें। जहां गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट खाद उपलब्ध हो वहां 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर देना लाभदायक होता है तथा इससे ज्वार से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है।
खरपतवार नियंत्रण: ज्वार फसल खरपतवार नियंत्रण हेतु कतारों के बीच व्हील हो या डोरा बोनी के 15-20 दिन बाद एवं 30-35 दिन बाद चलायें। इसके पश्चात कतारों के अंदर हाथों द्वारा निंदाई करें। संभव हो तो कुल्पे के दाते में रस्सी बांधकर पौधों पर मिट्टी चढ़ायें। रासायनिक नियंत्रण में एट्राजीन 0.5-1.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व अथवा एलाक्लोर 1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्व को 500 लीटर पानी में मिलाकर बोनी के पश्चात एवं अंकुरण के पूर्व छिड़काव करें। अंगिया ग्रस्त खेत में ज्वार के अनुकूल मौसम होने पर भी भुट्टे में दाने नहीं भरते हैं। निंदानाशक दवाओं के छिड़काव से अंगिया की रोकथाम की जा सकती है। 2-4, डी का सोडियम साल्ट 2 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करने से ज्वार में अंगिया की रोकथाम होती है। जब अंगिया की संख्या सीमित होती है तब अगिया को उखाड़कर नष्ट किया जा सकता है।
अंतरवर्तीय फसलें: इस पद्धति का मुख्य उद्धेश्य प्रति इकाई क्षेत्रा में एक ही समय में अधिक से अधिक उपज लेना। 30 सेमी. की दूरी पर ज्वार की दो कतार और 30 सेमी. पर सोयाबीन की दो कतार इस तरह एकातंतर प्रणाली में बोनी करने से ज्वार की पूरी उपज और सोयाबीन की लगभग 6 से 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है। बोते समय ज्वार का बीज 8 किलोग्राम और सोयाबीन का 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें। उर्वरक की मात्रा आधार रूप में 40 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम स्फुर एवं 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर दें। शेष 40 किलोग्राम नत्रजन की मात्रा जब फसल 30-35 दिन की हो जाये तब केवल ज्वार की फसल में दें। इस प्रकार उर्वरक की कुल मात्रा 80 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम स्फुर एवं 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें।
45 सेमी. की दूरी पर ज्वार की 4 कतार और 45 सेमी. की दूरी पर अरहर की दो कतारें अथवा ज्वार की दो कतार एवं अरहर की एक कतार, इस तरह एकांतर प्रणाली से संपूर्ण खेत की बोनी करें। ज्वार की पैदावार में आंशिक कमी आयेगी परंतु अरहर की उपज 6-8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होगी। बीते समय ज्वार का बीज 8 किलोग्राम एवं अरहर का बीज 7.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उपयोग करें। अर्तरवर्तीय फसल प्रणाली में नई जातियॉं संकर 14, संकर 16, संकर 17, संकर 18, ज्वार 1022, जवाहर ज्वार 1041 के साथ अधिक प्रभावी होती हैं।
पौध संरक्षण:
(अ) कीट: ज्वार की फसल में अनेक प्रकार के कीट पाए जाते हैं इनमें प्रमुख है तना छेदक मक्खी, तना छेदक इल्ली और भुट्टों के कीट मुख्यत- मिज मक्खी अधिक हानि पहुंचाती है।
1. तना छेदक मक्खी: यह कीट वयस्क घरेलू मक्खी की तुलना में आकार में छोटी होती है। इसकी मादा पत्तों के नीचे सफेद अंडे देती हैं। इन अंडे से 2 से 3 दिनों में इल्लियां निकलकर पत्तों के पोंगलों से होते हुए तनों के अंदर प्रवेश करती है और तनों के बढ़ने वाले भाग को नष्ट करती हैं। ऐसे पौधों में भुट्टे नहीं बन पाते हैं।
नियंत्रण: यदि बोनी वर्षा के आगमन के पूर्व अथवा वर्षा के आरंभ के एक सप्ताह में कर ली जाये तो इस कीट से हानि कम होती है। बीजोत्पादन क्षेत्र में बोनी के समय बीज के नीचे फोरेट 10 प्रतिशत अथवा कार्बोफयुरान 3 प्रतिशत दानेदार कीट नाशक 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से दें। देरी से बोनी होने पर सवाया बीज बोयें।
2. तना छेदक इल्ली: इस कीट की वयस्क मादा मक्खी पत्तों की निचली सतह पर 10 से लेकर 80 के गुच्छों में अंडे देती हैं जिससे 4 से 5 दिनों में इल्लियां निकलकर पत्तों के पोंगलों में प्रवेश करती हैं। तनों के अंदर में सुरंग बनाती हैं और अंतत: नाड़ा बनाती हैं। इस कीट की पहचान पत्तों में बने छेदों से की जा सकती है जो इल्लियां पोंगलों में प्रवेश के समय बनाती हैं।
नियंत्रण: पौधे जब 25-35 दिनों की अवस्था के हो तब पत्तों के पोंगलों में कार्बोफ्युरान 3 प्रतिशत दानेदार कीट नाशक के 5 से 6 दाने प्रति पौधे की मात्रा में डालें। लगभग 8 से 10 किलोग्राम कीटनाशक एक हेक्टेयर के लिये लगता है। दानेदार कीट नाशक महंगे है अत: इस कीट की संतोषजनक रोकथाम इंडोसल्फान 4 प्रतिशत अथवा क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण का देना पोंगलों में भुरकाव द्वारा देना संभव है। प्रति हेक्टेयर 8 से 19 किलोग्राम चूर्ण पर्याप्त होगा। यदि तना छेदक इल्ली का नियंत्रण फसल की प्रारंभिक अवस्था में न किया जाये तो भुट्टो के डंठलों में इल्लियां प्रवेश कर सुरंग बनाती हैं। परिणामस्वरूप भुट्टो में बढ़ते हुये दानों को पर्याप्त मात्रा में जल तथा पोषक तत्व उपलब्ध नहीं हो पाता है। ऐसे भुट्टो में दाने आकार में छोटे रह जाते हैं अथवा अनेक बार दाने नहीं बन पाते हैं।
3. भुट्टो के कीट: मीज मक्खी कीट का प्रकोप महाराष्ट्र से लगे जिलों में अधिक देखा जाता है। सामान्यत: तापमान जब गिरने लगता है तब कीट दिखाई देता है। इस कीट की वयस्क मादा मक्खी नारंगी-लाल रंग की होती है, जो फूलों के अंदर अंडे देती है। अंडों से 2 से 3 दिन में इल्लियां निकलकर फूलों के अंडकोषों को खाकर नष्ट करती है। परिणामस्वरूप भुट्टो में कई जगह दाने नहीं बन पाते। अन्य कीटों की इल्लियां भुट्टो में जाले बनाती हैं अथवा बढ़ते हुये दाने खाकर नष्ट करती हैं। कुछ रस चूसक कीट दानों से रस चूस लेते हैं।
नियंत्रण: खेत में जब 90 प्रतिशत पौधों में भुट्टे पोटो से बाहर निकल आवें तब भुट्टो पर इण्डोसल्फान 35 ई;सी; (1 लीटर प्रति हेक्टेयर) अथवा मेलाथियान 50 ई.सी. (1 लीटर प्रति हेक्टेयर) तरल कीट नाशक को 500-600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। आवश्यकता होने पर 10-15 दिनों बाद छिड़काव दोहराएं। यदि तरल कीटनाशक उपलब्ध न हो तो इण्डोसल्फान 4 प्रतिशत अथवा मेलाथियान 5 प्रतिशत चूर्ण का भुरकाव 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।
(ब) रोग: ज्वार की देसी किस्मों के पत्तों पर अनेक प्रकार के चित्तिदार पर्ण रोग देखे जा सकते हैं परंतु संकर किस्मों और नई उन्नत किस्मों के पत्तों पर पर्ण चित्ती रोग कम दिखाई देते हैं क्योंकि उनमें इन रोगों के लिए प्रतिरोधिक क्षमता या आनुवाशिक गुण है। कंडवा रोग भी नई किस्मों में नहीं दिखाई देता है।
पौध सड़न अथवा कंडवा का नियंत्रण बीज को कवकनाशी दवा से उपचारित करने से संभव है। चूंकि ज्वार की नई किस्में लगभग 95 से 110 दिनों में पकती है, दाने पकने की अवस्था में वर्षा होने से दानों पर काली अथवा गुलाबी रंग की फफूंद की बढ़वार दिखाई देती है। दाने पोचे हो जाते हैं, उनकी अंकुरण क्षता कम हो जाती है और मानव आहार के लिये ऐसे दाने उपयुक्त नहीं होते हैं।
नियंत्रण: इस रोग के सफल नियंत्रण के लिये यदि ज्वार फूलने के समय वर्षा होने से वातावरण में अधिक नमी हो तो केप्टान (0.3 प्रतिशत) और डाईथेन-एम (0.3 प्रतिशत) के मिश्रण के घोल का छिड़काव तीन बार भुट्टो पर निम्नानुसार करना चाहिए।
1. फूल अवस्था के समय
2. दानों में दूध की अवस्था के समय और
3. दाने पकने की अवस्था के समय
कटाई: फसल की कटाई कार्यकीय परिपक्वता पर करनी चाहिए। हर किस्म में भुट्टों के पकने का समय अलग-अलग होता है। ज्वार के पौधों की कटाई करके ढेर लगा देते है। बाद में पौध से भुट्टो को अलग कर लेते हैं तथा कड़बी को सुखाकर अलग ढेर लगा देते हैं। यह बाद में जानवरों को खिलाने में काम आता है। दानों को सुखाकर जब नमी 10 से 12 प्रतिशत हो तब भंडारण करना चाहिए।
अधिक उत्पादन लेने के लिए प्रमुख बातें:-
1. सही समय पर बोनी करें।
2. सही किस्म का चुनाव करें।
3. खेत में जुताई अच्छी तरह करें।
4. उपचारित बीज की बोनी करें।
5. पौधों की संख्या प्रति इकाई उपयुक्त रखें।
6. खाद व उर्वरक का उपयोग संतुलित मात्रा में निर्धारित समय पर करें।
7. खेत में पानी का निकास अच्छा रखें।
8. गभोट अवस्था में यदि आवश्यकता हो तो सिंचाई करें।
9. पौध संरक्षण उपाय समय पर अपनायें।
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